अनेक अध्ययनों में ये तथ्य सामने आ चुके हैं कि ज्यादा से ज्यादा फसलें उगाने के लिए खेती में उर्वरकों पर निर्भरता ने भूमि में एक तरह से जहर घोल दिया और उर्वरा-शक्ति को बेहद कमजोर कर दिया है। लेकिन इस पर नियंत्रण या वैकल्पिक उपाय अपनाने के बजाय ज्यादा उपज के लिए आज भी रासायनिक खादों का अंधाधुंध इस्तेमाल जारी है। नतीजतन, खेत दिनोंदिन और बीमार होते जा रहे हैं और इसका सीधा असर फसलों की उपज और लोगों की सेहत पर पड़ना तय है। पड़ भी रहा है। काफी देर से ही सही, अब सरकार को भी इसकी चिंता सताने लगी है। इसी के मद्देनजर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ‘स्वस्थ धरा तो खेत हरा’ का नारा दिया है और मृदा स्वास्थ्य कार्ड योजना की शुरुआत की है। इसके तहत देश के चौदह करोड़ किसानों को यह कार्ड दिया जाएगा। इसके दायरे में आने वाले किसानों की सिंचित और असिंचित भूमि से मिट्टी के नमूने लेकर प्रयोगशालाओं में जांच के लिए भेजा जाएंगे। परीक्षण के नतीजों के आधार पर जानकारी दी जाएगी कि उनकी जमीन की उर्वरा-क्षमता कैसी है और उसमें किस तरह के उर्वरकों की जरूरत है।
यह योजना अमल में आती है तो निश्चय ही उन किसानों को फायदा होगा, जो ज्यादा उपज के लिए खेतों में बेतहाशा रासायनिक खादों का इस्तेमाल करते हुए यह नहीं सोच पाते कि इसका भूमि पर कितना खतरनाक असर पड़ रहा है, पैदावार की गुणवत्ता कैसी होगी। रासायनिक उर्वरकों के बेलगाम इस्तेमाल ने खेतों को किस कदर रुग्ण बना दिया है, यह अब आम अनुभव की बात है। विडंबना यह है कि राजस्थान के सूरतगढ़ में आयोजित जिस कार्यक्रम में प्रधानमंत्री ने ‘स्वस्थ धरा तो खेत हरा’ का नारा दिया, उसी में पंजाब को खाद्यान्न के सबसे ज्यादा उत्पादन के लिए प्रथम पुरस्कार दिया गया। जबकि पंजाब का एक बड़ा इलाका रासायनिक खादों और कीटनाशकों के अनियंत्रित इस्तेमाल का खमियाजा भुगत रहा है। वहां के भूजल में इसका असर बुरी तरह घुल चुका है। यही नहीं, आज यह वहां कैंसर के मामले बढ़ने की सबसे बड़ी वजह बन गया है।
सत्तर के दशक में पंजाब में जिस हरित क्रांति की शुरुआत हुई थी, उसका महिमामंडन तो खूब हुआ, लेकिन उसके दुष्प्रभावों की चर्चा कम ही हुई है। उस दौरान ज्यादा पैदावार वाली किस्में तैयार करने के लिए बिना सोचे-समझे अनियंत्रित तरीके से रासायनिक खादों का प्रयोग शुरू हुआ। साधारण किसानों को इसका अंदाजा भले न रहा हो कि इन खादों और कीटनाशकों के अतिशय इस्तेमाल के क्या असर सामने आ सकते हैं! लेकिन क्या सरकार और उसकी प्रयोगशालाओं में बैठे विशेषज्ञ भी इन खतरों से अनजान थे? विज्ञान एवं पर्यावरण केंद्र, चंडीगढ़ स्थित पीजीआइ और पंजाब विश्वविद्यालय सहित खुद सरकार की ओर से कराए गए अध्ययनों में ये तथ्य उजागर हो चुके हैं कि कीटनाशकों के बेलगाम इस्तेमाल के कारण कैंसर जैसी जानलेवा बीमारी फैलती जा रही है। लेकिन चेतावनी के इन स्वरों को लगातार अनुसना किया गया। अब सरकार मिट्टी की जांच के बाद उर्वरकों की जरूरत निर्धारित करने की बात कर रही है। पर रासायनिक खादों से मुक्ति दिलाने का कार्यक्रम क्या होगा? वैकल्पिक तरीके अपनाने वालों के लिए खास सबसिडी या वित्तीय प्रोत्साहन की पहल होनी चाहिए। कृषि वैज्ञानिक सुभाष पालेकर के प्रयत्नों से देश में कई जगह रसायन-कीटनाशक मुक्त खेती हो रही है। इन प्रयोगों को अभियान का रूप देने का वक्त आ गया है।
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