नवंबर 2008 में मुंबई में हुए आतंकवादी हमले के मुख्य षड्यंत्रकारी और लश्कर-ए-तैयबा के आॅपरेशन कमांडर जकीउर रहमान लखवी को रिहा करने के इस्लामाबाद उच्च न्यायालय के आदेश की खबर आते ही मोदी सरकार ने पाकिस्तानी उच्चायुक्त को तलब कर अपनी नाराजगी जताई। यों यह पाकिस्तान सरकार का नहीं, वहां की एक अदालत का फैसला है। इसलिए पाकिस्तान सरकार कह सकती है कि इसके लिए वह जिम्मेवार नहीं है। पर जेल से लखवी की रिहाई के पहले ही उसे लोक सुरक्षा आदेश के तहत महीने भर के लिए फिर से हिरासत में ले लिया गया। क्या यह भारत की तीखी प्रतिक्रिया का असर था? जो हो, यह किसी से छिपा नहीं है कि पाकिस्तान में आतंकवाद के आरोपियों के खिलाफ न्यायिक कार्यवाही को तार्किक परिणति तक पहुंचाना बहुत कठिन रहा है। खुद पाकिस्तान की संघीय जांच एजेंसी की विशेष जांच इकाई ने लखवी से जुड़ी न्यायिक कार्यवाही के सिलसिले में दायर एक याचिका में कहा था कि ऐसे मामलों में उसके लिए काम करना बहुत मुश्किल है। यह कठिनाई किस हद तक रही है इसका अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि लखवी के खिलाफ चले मुकदमे के दौरान एक सरकारी वकील की हत्या हो गई और आतंकवाद के मामलों की सुनवाई करने वाली अदालत के जज आठ बार बदले गए।
मुंबई हमले की बाबत लखवी के खिलाफ सबूतों की कमी नहीं रही है। वह लश्कर-ए-तैयबा का मुखिया है जिसे संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने भी आतंकवादी संगठन करार दिया हुआ है। जहां तक मुंबई हमले की बात है, उसका हाथ होने के ढेरों प्रमाण हैं। उसने मुंबई कांड के हमलावरों को प्रशिक्षित किया था, यह बात खुद अजमल कसाब के बयान में आ चुकी थी। कसाब ने मुंबई पुलिस को बताया था कि लखवी ही लश्कर का मुख्य सरगना था और मुंबई हमले के लिए योजना बनाने और प्रशिक्षण देने के अलावा वह हमले के वक्त संपर्क बनाए रखते हुए पल-पल निर्देशित भी करता रहा। हमले से पहले इलाके के बारे में जानकारी इकट्ठा करने के लिए भेजे गए डेविड हेडली ने भी कबूल किया था कि लखवी हमले का सूत्रधार था। इसके अलावा, सैयद जैबुद््दीन अंसारी उर्फ अबू जिंदाल ने भी, जिसे जून 2012 में सऊदी अरब ने भारत को प्रत्यर्पित किया, कहा था कि लखवी ने मुंबई कांड की सारी योजना बनाई और लश्कर के ‘कंट्रोल रूम’ में बैठ कर कसाब और उसके साथी हमलावरों को बताता रहा कि कब क्या करना है।
इस्लामाबाद हाइकोर्ट ने कहा है कि बाहरी दबाव के आधार पर किसी को हिरासत में नहीं रखा जा सकता, यह उसके नागरिक अधिकारों का हनन है। पर इससे अभियोजन पक्ष की खामी ही उजागर होती है। सरकारी वकील और जांच एजेंसी ने अन्य देशों से रिश्ते बिगड़ने की आशंका को मुख्य दलील के रूप में क्यों पेश किया? क्या संघीय जांच एजेंसी ने सबूत जुटाने में कोताही बरती, या अभियोजन पक्ष ने जांच के दौरान सामने आए और भारत की ओर से कई दफा सौंपे गए सबूतों की अनदेखी की? लखवी की बाबत आए फैसले को केवल अदालत की मर्जी कह कर सारे मामले को रफा-दफा नहीं किया जा सकता। इसने आतंकवाद से जुड़े मामलों में पाकिस्तान की न्यायिक प्रक्रिया, जांच एजेंसियों की कार्य-प्रणाली से लेकर सरकारी वकीलों और प्रशासनिक अधिकारियों की विश्वसनीयता पर गंभीर सवाल खड़े किए हैं। यह फैसला ऐसे वक्त आया है जब भारत और पाकिस्तान फिर से शांति वार्ता के तार जोड़ना चाहते हैं फिर आतंकवाद का दंश पाकिस्तान भी झेल रहा है, और इस्लामाबाद उच्च न्यायालय का फैसला उसके लिए भी शुभ संकेत नहीं है।
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