समाजवादी पार्टी में कौमी एकता दल के विलय से एक बार फिर यह कड़वी हकीकत ही रेखांकित हुई है कि हमारी राजनीति में तरह-तरह की फिसलन का सिलसिला कितना तेज है। कौमी एकता दल का गठन मुख्तार अंसारी ने किया था, जो हत्या और अपहरण समेत कई संगीन आपराधिक मामलों में जेल में बंद हैं। वे विधायक भी हैं। कौमी एकता दल के उम्मीदवार के तौर पर चुने गए दूसरे विधायक हैं उनके भाई अफजल अंसारी। इस विलय से सपा के खाते में दो विधायक और जुड़ गए हैं। मगर अकेले अपने बहुमत के बूते सरकार चला रही समाजवादी पार्टी की मंशा इस विलय के पीछे दो विधायकों के इजाफे के बजाय अगले विधानसभा चुनाव का खेल साधने की होगी। सपा को उम्मीद होगी कि कौमी एकता दल के विलय से पूर्वी उत्तर प्रदेश में उसे अल्पसंख्यक वोटों का फायदा होगा। मऊ, आजमगढ़, जौनपुर, आजमगढ़, जौनपुर, वाराणसी जैसे जिलों में अल्पसंख्यक मतदाताओं की अच्छी-खासी तादाद है।
सपा नेताओं ने सोचा होगा कि कौमी एकता दल के सपा में मिल जाने से इन जिलों की कई सीटें उनकी झोली में आ जाएंगी। ऐसा होगा या नहीं, यह तो चुनाव परिणाम बताएगा। पर इस विलय से सपा ने अपनी कमजोरी ही जाहिर की है, नैतिक रूप से भी और रणनीतिक रूप से भी। इस विलय से खासकर मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की साख को गहरा धक्का लगा है। दूसरे, यह संदेश गया है कि सपा अपनी चुनावी संभावनाओं को लेकर आश्वस्त नहीं है। पिछले विधानसभा चुनाव से ऐन पहले सपा नेता शिवपाल सिंह यादव ने पश्चिम उत्तर प्रदेश के बाहुबली डीपी यादव को पार्टी में शामिल करने का एलान किया था। इस पर काफी तीखी प्रतिक्रिया हुई थी। खुद अखिलेश को वह फैसला रास नहीं आया था, जो सपा का चुनावी चेहरा थे। उनके एतराज के चलते वह फैसला रद््द कर दिया गया। यही नहीं, अखिलेश यादव ने हर चुनावी रैली में यह भरोसा दिलाया कि समाजवादी पार्टी पिछली गलतियां नहीं दोहराएगी। उनकी बात पर लोगों ने भरोसा भी जताया। लेकिन पार्टी को आपराधिक पृष्ठभूमि के लोगों से दूर रखने के वादे का क्या हुआ?
सपा के अपने दागदार तो हैं ही, भाजपा विधायक कृष्णानंद राय और विहिप के पदाधिकारी नंदकिशोर रूंगटा की हत्या के आरोपी को भी गले लगाने में उसे कोई संकोच नहीं हुआ। जाहिर है, मुख्तार अंसारी के सपा से जुड़ने को भाजपा जरूर मुद््दा बनाएगी। सपा कहती है कि भाजपा विधानसभा चुनाव से पहले सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की कोशिश कर रही है। पर विडंबना यह है कि इस कोशिश की काट साबित होने के बजाय सपा इसमें परोक्ष रूप से मददगार ही बन रही है। विलय की घोषणा के समय, यह पूछे जाने पर कि क्या मुख्तार अंसारी भी सपा में शामिल हो रहे हैं, शिवपाल सिंह यादव ने गोलमोल जवाब दिया। पर कौमी एकता दल ने विलय का फैसला क्या मुख्तार की मर्जी के बगैर किया होगा? विचित्र है कि बलराम यादव को मंत्रिमंडल से हटाए जाने के पीछे यह वजह बताई जा रही है कि कौमी एकता दल का विलय कराने में उनकी सक्रियता से मुख्यमंत्री नाराज थे। अगर यही कारण है तो शिवपाल सिंह यादव के खिलाफ क्या कार्रवाई होगी, जो इस मामले में सूत्रधार रहे हैं? और भी अहम सवाल यह है कि क्या पार्टी राजनीति के अपराधीकरण को रोकने के अखिलेश यादव के वादे से उलटी राह पर चल रही है?