सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की सुस्त कार्य प्रणाली, निजी बैंकों के बरक्स कारोबारी प्रतिस्पर्द्धा में पिछड़ते जाने, राजनीतिक दबाव में उनके अहम फैसले बाधित होने आदि को लेकर लंबे समय से अंगुलियां उठती रही हैं। अर्थव्यवस्था की रफ्तार बढ़ाने को लेकर चिंतित प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसी के मद्देनजर पिछले शनिवार को वित्तमंत्री और रिजर्व बैंक के गवर्नर के साथ बैठक में सार्वजनिक बैंकों को अधिक स्वायत्तता देने पर जोर दिया। इसी का नतीजा है कि वित्त मंत्रालय ने सार्वजनिक बैंकों को निर्देश जारी किया कि वे बिना किसी दबाव और भय के काम करें और वाणिज्यिक मामलों में निर्द्वंद्व फैसले करें। देखना है, यह निर्देश कितना प्रभावी साबित होता है। अभी स्थिति यह है कि सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक लगातार निजी बैंकों की तुलना में कारोबारी दृष्टि से पिछड़ रहे हैं। इसकी बड़ी वजह उन पर लगातार राजनीतिक दबाव बने रहना है। उनके मुखिया वित्तीय मामलों, भर्तियों आदि में स्वतंत्र फैसले नहीं कर पाते। बैंकिंग क्षेत्र के कुल कारोबार के करीब दो तिहाई हिस्से पर सार्वजनिक बैंकों का अधिकार है। बाकी में निजी और विदेशी बैंकों का कारोबार सिमटा हुआ है। पिछले नौ सालों में निजी बैंकों की तुलना में सार्वजनिक बैंकों ने अपनी शाखाओं का विस्तार अधिक किया, मगर रोजगार के स्तर पर उनमें भर्तियां सबसे कम हुर्इं। खुद रिजर्व बैंक के ताजा आंकड़े के मुताबिक इस बीच निजी बैंकों में करीब बहत्तर फीसद नए रोजगार सृजित हुए। अखिल भारतीय बैंक कर्मचारी संघ के मुताबिक सार्वजनिक बैंकों में करीब दो लाख पद खाली पड़े हैं। पिछले सात सालों में सार्वजनिक बैंकों ने पच्चीस हजार नई शाखाएं खोलीं, मगर उनमें नई भर्तियां महज बीस हजार हुर्इं। अनुमान है कि अगले तीन सालों में कर्मचारियों के अवकाश ग्रहण करने के बाद कुल खाली पदों की संख्या बढ़ कर तीन लाख तक पहुंच जाएगी। यहां तक कि कार्यकारी निदेशक स्तर के चौदह पदों पर भी लंबे समय से भर्तियां रुकी हुई हैं। ऐसी स्थिति में सार्वजनिक बैंकों के कामकाज की गति का अनुमान लगाना कठिन नहीं है।

कर्मचारियों की भर्ती को लेकर अखिल भारतीय बैंक कर्मचारी संघ लंबे समय से संघर्ष कर रहा है, मगर यूपीए सरकार के समय उच्च पदों से लेकर निचले पदों तक कटौती का रास्ता अख्तियार किया गया। इसका असर उनके कारोबार पर पड़ता है। ऋण वगैरह के मामले में सार्वजनिक बैंकों की वसूली की रफ्तार धीमी पड़ गई है। उनका बहुत सारा पैसा बट््टे खाते में चला गया है। इसके खिलाफ कड़े कदम उठाना उन्हें इसलिए संभव नहीं हो पाता कि उन पर राजनीतिक और प्रशासनिक दबाव बना रहता है। सार्वजनिक बैंकों का बट््टे खाते में गया ज्यादातर पैसा ऊंची रसूख वाले लोगों और कंपनियों के नाम हैं, जो उन्होंने उद्योग-धंधे आदि शुरू करने के नाम पर लिया था। इसे लेकर काफी समय से आवाज उठती रही है, मगर कोई नतीजा नहीं निकला। अब सरकार ने इन बैंकों के हाथ कुछ खोलने का मन बनाया है, तो उम्मीद जगी है कि उनमें कुछ कारोबारी गति आ सकेगी। मगर बड़ी चुनौती यह है कि निजी बैंकों की कार्यप्रणाली और उनमें कर्मचारियों, अधिकारियों आदि को मिलने वाली सुविधाओं, दूसरे तकनीकी पक्षों के बरक्स ये बैंक कितनी आजादी हासिल कर पाते हैं। निजी बैंक अपने कारोबारी हितों को ध्यान में रखते हुए, रिजर्व बैंक की नीतियों के अनुरूप जिस तरह स्वतंत्र रूप से फैसले कर पाते हैं, वह आजादी सार्वजनिक बैंकों को हासिल नहीं हो सकती। बावजूद इसके अगर राजनीतिक और प्रशासनिक दबाव कम किए जा सकें, सुविधाओं, भर्तियों आदि के मामले में खुद फैसले करने की आजादी दी जाए तो इन बैंकों की दशा में सुधार मुश्किल नहीं है।

 

 

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