श्रीलंका में चुनाव नतीजे वही आए, जिसकी पहले से उम्मीद की जा रही थी। दरअसल, महिंदा राजपक्षे के परिवारवादी और तानाशाही रवैए के चलते वहां व्यापक असंतोष था। जब उनकी पार्टी से अलग होकर मैत्रीपाल सिरीसेना ने लोगों का लोकतांत्रिक मूल्यों में भरोसा जगाया तो उन्हें भरपूर समर्थन मिला। पहली बार जब महिंदा राजपक्षे सत्ता में आए तो उन्होंने करीब पच्चीस सालों से चली आ रही गृहयुद्ध की स्थिति पर सख्ती से काबू पाया और लिट््टे का सफाया कर दिया। इसी के चलते वहां के लोगों ने उन्हें दूसरी बार भी सत्ता की बागडोर सौंप दी। मगर जल्दी ही उन्होंने तानाशाही रवैया अख्तियार कर लिया। सत्ता के अहम पदों पर अपने परिवार के लोगों को बिठाना शुरू कर दिया। हालांकि उन्होंने वादा किया था कि संविधान में संशोधन करके सत्ता का विकेंद्रीकरण करेंगे, मगर किया इसका उलट। धीरे-धीरे संविधान में बदलाव करके तमाम कार्यकारी शक्तियां अपने हाथ में ले लीं और वहां प्रधानमंत्री का पद केवल शोभा का बन कर रह गया। फिर अल्पसंख्यक तमिलों के अधिकारों का बर्बरता से हनन शुरू हो गया। इस मामले में उन्होंने अंतरराष्ट्रीय दबावों की भी परवाह नहीं की। सत्ता की भूख उन्हें इस कदर बढ़ गई थी कि राष्ट्रपति का चुनाव दो बार से अधिक न लड़ने की संवैधानिक शर्त को बदल कर तीन बार तक कर दिया था। हालांकि उनके खिलाफ माहौल बहुत पहले से बनने लगा था, मगर उन्हें भरोसा था कि इस बार भी वे किसी तरह सत्ता पर काबिज हो जाएंगे। इसी के चलते उन्होंने तय समय से दो साल पहले ही चुनाव की घोषणा कर दी। मैत्रीपाल सिरीसेना उनकी सरकार में मंत्री थे, मगर चुनाव से कुछ समय पहले उन्होंने राजपक्षे की पार्टी से खुद को अलग कर लिया था। उन्हें विपक्षी यूनाइटेड नेशनल पार्टी, बौद्ध राष्ट्रवादी जेएचयू और तमिल तथा मुसलिम पार्टियों का समर्थन मिला। इस तरह उनका पलड़ा पहले दिन से भारी बना हुआ था।
मैत्रीपाल सिरीसेना की पहचान एक जमीनी नेता के रूप में है। वे श्रीलंका के उत्तर-मध्य क्षेत्र के ग्रामीण इलाके से ताल्लुक रखते हैं और शुरू से जनतांत्रिक मूल्यों के पक्षधर रहे हैं। इसलिए उन्हें राजपक्षे शासन की नीतियों और कार्यप्रणाली से नाराज मुसलिम और तमिल अल्पसंख्यकों के अलावा सिंहली समुदाय का भी भरपूर समर्थन मिला। राष्ट्रपति पद की शपथ लेते हुए सिरीसेना ने भरोसा दिलाया कि वे एक व्यावहारिक विदेश नीति तैयार करेंगे और सभी वर्गों के हितों को ध्यान में रखते हुए शासन का खाका तैयार करेंगे। फिलहाल उनके सामने राजपक्षे शासन के दौरान पैदा हुई राजनीतिक और प्रशासनिक विसंगतियों को दूर करना बड़ी चुनौती है। खासकर तमिल अल्पसंख्यकों के मानवाधिकारों की रक्षा करने के व्यावहारिक उपाय करना उनकी पहली प्राथमिकता होनी चाहिए। वहां तमिल आबादी करीब तेरह प्रतिशत है, मगर उन्हें न तो शासन में कोई प्रतिनिधित्व मिल पाता न बुनियादी सुविधाएं उपलब्ध हो पाती हैं। अगर वे अपना हक मांगते हैं तो दमन का शिकार होना पड़ता है। सिरीसेना के आने से स्वाभाविक ही भारत को कुछ बेहतरी की उम्मीद जगी है। यह केवल तमिलों से भावनात्मक लगाव का नहीं, बल्कि मानवाधिकारों की रक्षा का भी मामला है। तमिलों की जो जमीन वहां की सेना ने छीन ली है, उसे वापस लौटाने और उन्हें शिक्षा, स्वास्थ्य आदि बुनियादी अधिकार प्रदान करने की नीति तैयार करनी होगी। दूसरे, श्रीलंका काफी समय से चीन के लिए भारत को घेरने का कूटनीतिक हिस्सा बन गया था। नए राष्ट्रपति मैत्रीपाल सिरीसेना को इस दिशा में भी गंभीरता से कदम बढ़ाने की जरूरत है। क्योंकि आखिर दक्षिण एशियाई देशों की एकजुटता के बगैर उनके लिए भी अपनी अर्थव्यवस्था को संभालना कठिन बना रहेगा।
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