हर साल आम बजट से एक रोज पहले सरकार की ओर से संसद में आर्थिक सर्वेक्षण पेश करने की परिपाटी रही है। मोटे तौर पर इसमें बीते वित्तवर्ष में अर्थव्यवस्था की हालत का ब्योरा और आगामी वित्तवर्ष में उसके प्रदर्शन का अनुमान होता है। ताजा सर्वेक्षण में बीते साल में अर्थव्यवस्था की प्रगति को लेकर जहां संतोष जताया गया है वहीं आने वाले साल में उसकी गुलाबी संभावनाओं की तस्वीर खींची गई है। मगर कई अहम या असुविधाजनक मसलों पर सर्वेक्षण ने चुप्पी साध रखी है। मसलन, वर्ष 2014-15 की आर्थिक समीक्षा पेश करते हुए वित्तमंत्री ने यह बताने की जरूरत नहीं समझी कि देश से बाहर जमा भारतीयों के काले धन का पता लगाने और उसकी वापसी में क्या प्रगति हुई। इसी तरह न तो देश में बेरोजगारी की स्थिति के बारे में कुछ कहा गया है न किसानों की आत्महत्याओं के बारे में। असंगठित क्षेत्र की कोई चिंता आर्थिक सर्वेक्षण में नहीं दिखती। पर यह केवल इसी सर्वेक्षण का दोष नहीं है। इससे पहले भी तमाम सालाना सर्वेक्षण इसी ढर्रे पर आए हैं।

मोदी सरकार ने जब कार्यभार संभाला तब उससे उम्मीदें परवान पर थीं। लग रहा था कि अब अर्थव्यवस्था की हालत में तेजी से सुधार होगा। पर ऐसा कुछ नहीं हुआ जिसे अपूर्व कहा जा सके। अलबत्ता पिछला बजट पेश करने के बाद से अब तक के सात महीनों में कुछ मोर्चों पर सरकार ने महत्त्वाकांक्षी पहल की है और देश की अर्थव्यवस्था के सामने जहां अब भी कुछ बड़ी चुनौतियां हैं वहीं कुछ सुकून करने लायक तथ्य भी हैं। सबसे बड़ी राहत अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल के दाम में आई भारी गिरावट के कारण पेट्रोल-डीजल की खुदरा कीमतों में आई कमी है। वरना महंगाई का ग्राफ काफी चिंताजनक स्तर पर हो सकता था। तीन साल बाद सरकार ने विकास दर में खासे सुधार का अनुमान पेश करते हुए दावा किया है कि अगले साल विकास दर आठ फीसद से ऊपर रहेगी। पर हाल में विकास दर का हिसाब बिठाने के लिए सरकार ने जिस संशोधित आधार को मंजूर किया है, उसे अनेक अर्थशास्त्री सटीक नहीं मानते। वित्तमंत्री ने राजकोषीय घाटे को जीडीपी के तीन फीसद तक रखने का मध्यावधि लक्ष्य प्रस्तुत किया है। इसे पाने के लिए उनका जोर सरकारी खर्च घटाने, विकास दर बढ़ाने और जीएसटी यानी वस्तु एवं सेवा कर लागू करने पर है। मगर जीएसटी लागू भी हुआ तो शुरू के दो-तीन वर्षों में केंद्र पर राज्यों को आशंकित नुकसान की भरपाई का भार रहेगा।

व्यापार घाटा यानी आयात-निर्यात की खाई कम हुई है, पर इसे अभी टिकाऊ रुझान कहना मुश्किल है, क्योंकि इसके पीछे प्रमुख कारण अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल के दाम में आई कमी है। पिछले कुछ महीनों में सोने की आवक, खासकर स्विट्जरलैंड से, बहुत तेजी से हुई है। क्या इसके पीछे गुप्त खातों के खिलाफ कार्रवाई का दबाव है? बाहर से अप्रत्याशित ढंग से स्वर्ण-खरीद का यह सिलसिला न होता, तो व्यापार घाटे को पाटने का इससे अच्छा मौका और क्या हो सकता था! प्रधानमंत्री के ‘मेक इन इंडिया’ और ‘स्किल इंडिया’ के मद््देनजर वित्तमंत्री ने विनिर्माण क्षेत्र पर खूब जोर दिया है। अच्छी बात है, पर इस सिलसिले में अभी घोषणाएं ही हुई हैं, कुछ ऐसा नहीं हुआ है जिसे ठोस उपलब्धि कहा जा सके। सर्वेक्षण में वित्तमंत्री ने बैंकों की कार्यप्रणाली बेहतर करने की जरूरत रेखांकित की है, पर सरकारी बैंकों के बढ़ते एनपीए पर उन्होंने चुप्पी क्यों साध ली!

 

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