पेट्रोलियम मंत्रालय के दस्तावेज लीक करने के मामले में कुछ व्यक्तियों की गिरफ्तारी दिल्ली पुलिस की बड़ी कामयाबी है। यह आरोप अक्सर सुनने में आता रहा है कि कंपनियां आर्थिक नीतियों और कारोबार से ताल्लुक रखने वाले मंत्रालयों के फैसलों को अपने हक में प्रभावित करने की कोशिश करती रहती हैं। पर इसके लिए सरकारी दस्तावेजों की चोरी भी होती है, इसका अंदाजा बहुत-से लोगों को नहीं रहा होगा। दिल्ली पुलिस की अपराध शाखा ने जिन पांच व्यक्तियों को गिरफ्तार किया है उनमें पेट्रोलियम मंत्री के चपरासी और एक क्लर्क के अलावा रिलायंस इंडस्ट्रीज और एस्सार ग्रुप के एक-एक कर्मचारी भी शामिल हैं। हालांकि रिलायंस ने अपने कर्मचारी की गिरफ्तारी की बात मानी है, पर यह भी कहा है कि उसे मंत्रालय से कोई ऐसी सूचना नहीं मिली जिससे उसे कोई फायदा हो सकता हो। सवाल यह है कि दस्तावेजों की चोरी के पीछे मकसद क्या था और संभावित लाभार्थी कौन हो सकते हैं? जिन कागजात की प्रतियां बना कर बाहर ले जाई जा रही थीं, वे चुराने वालों के अपने काम की नहीं थीं। उनका स्वार्थ तो इन सूचनाओं को बेचने में था।
जिनकी दिलचस्पी इस बात में रहती हो कि मंत्रालय के भीतर तेल और गैस के मूल्य निर्धारण के मसले पर क्या चल रहा है, कौन-सा अधिकारी किस फाइल पर क्या टिप्पणी दर्ज कर रहा है, किसे खुश करने या किसे हटवाने से काम बनेगा, वही लोग इन दस्तावेजों के ग्राहक हो सकते हैं और बदले में वे इसकी कीमत भी चुकाते रहे होंगे। फिर, अपनी पसंद की टिप्पणी लिखवाने के लिए कंपनियां दबाव भी डालती होंगी। कॉरपोरेट जासूसी के इस खेल का खुलासा भले अभी हुआ हो, पर यह बरसों से चलता रहा है। निजीकरण के पक्ष में सरकारी विभागों के भ्रष्टाचार का हवाला दिया जाता है। पर कंपनियां किस तरह अपने कारोबारी स्वार्थ साधने की खातिर अधिकारियों-कर्मचारियों को भ्रष्ट करती हैं, यह हकीकत आमतौर पर नजरअंदाज कर दी जाती रही है। जो चीज सामने आई है वह क्या पेट्रोलियम मंत्रालय तक सीमित होगी? अनुमान है कि दूरसंचार, कोयला, बिजली जैसे मंत्रालयों की भी निर्णय-प्रक्रिया में सेंध लगाने की कोशिश होती है। बिचौलियों और भ्रष्ट कर्मचारियों के जरिए यह सब करने का मकसद साफ है। अगर यह पता चल जाए कि किस मामले में संबंधित मंत्रालय का क्या फैसला होना है, तो संभावित प्रतिकूल फैसले को पलटवाने और शेयरों की खरीद-बिक्री से लेकर मुनाफे की दूसरी रणनीतियां पहले से बनाई जा सकती हैं। जो लोग इसमें नहीं पड़ते और ईमानदारी से कारोबार करते हैं, ठगे जाते हैं। पर यह गोरखधंधा दस्तावेजों की चोरी करवाने तक सीमित नहीं है।
ऐसे आरोप लगते रहे हैं कि ताकतवर कंपनियां अपनी दिलचस्पी के विभागों में वरिष्ठ अधिकारियों की नियुक्ति, पदोन्नति और तबादले तक में दखल देने से बाज नहीं आतीं। जब जयपाल रेड्डी पेट्रोलियम मंत्री बने तो उन्हें इन सब बातों का अंदेशा था। उन्होंने खुफिया ब्यूरो से कई अधिकारियों की निगरानी की सिफारिश की, और चपरासियों तक की अदला-बदली कर दी थी। मगर फिर रेड््डी पेट्रोलियम मंत्रालय में टिके नहीं रह सके। उन्हें क्यों हटाया गया यह आज भी रहस्य है। शायद मणिशंकर अय्यर को भी उन्हीं कारणों से पेट्रोलियम मंत्रालय से विदा किया गया था। हथियारों और दूसरे सैनिक साज-सामान की खरीद की बाबत रक्षा मंत्रालय के फैसलों को भी बिचौलियों के जरिए प्रभावित करने के प्रयास होते रहे हैं। फिर, मोदी सरकार ने सैन्य सामग्री के उत्पादन में निजी क्षेत्र की भागीदारी का रास्ता साफ कर दिया है। अगर किसी दिन राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े दस्तावेज भी चोरी होने लगेंगे, तो क्या होगा! इसलिए यह जरूरी है कि खुलासे से सामने आए मामले की जांच और कार्रवाई तर्कसंगत परिणति तक पहुंचाई जाए, बिना इसकी परवाह किए कि इसकी आंच किन-किन लोगों पर आती है।
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