किसी भी सभ्य समाज में हिंसा की कोई जगह नहीं होनी चाहिए। मगर लोकतांत्रिक गणराज्य होने के बावजूद हमारे यहां जाति, धर्म, समुदाय, भाषा, क्षेत्रीयता, आदि के मसलों पर अक्सर लोग हिंसक हो उठते हैं। मामूली अफवाहों के चलते भी हिंसा की घटनाएं होती रहती हैं। और जब बात देशप्रेम की हो, तो लोग कुछ ज्यादा ही आक्रामक रुख अपना लेते हैं। पुलवामा में सीआरपीएफ के काफिले पर हुए हमले के बाद भी देश में कुछ ऐसा ही माहौल बन गया। कश्मीरी लोगों पर हमले शुरू हो गए। मैदानी इलाकों में पढ़ रहे बच्चों के साथ न सिर्फ उनके सहपाठियों ने बदसलूकी की, बल्कि संस्थानों के प्रशासन का व्यवहार भी आपत्तिजनक देखा गया। कई शहरों में व्यापार कर रहे लोगों की दुकानों में तोड़-फोड़ की गई। ऐसी ही घटना पिछले दिनों लखनऊ में हुई जब दो मेवा विक्रेताओं को कुछ लोगों ने सरेआम पीटा। इस घटना के बाद केंद्रीय गृहमंत्रालय ने सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को परामर्श जारी किया कि वे कश्मीरी लोगों की सुरक्षा सुनिश्चित करें। प्रधानमंत्री ने भी एक सार्वजनिक मंच से ऐसी घटनाओं पर अफसोस जाहिर करते हुए इन पर रोक लगाने की अपील की। हालांकि पुलवामा की घटना के बाद भी ऐसा परामर्श जारी किया गया था, पर लखनऊ की घटना इस बात का सबूत है कि राज्य सरकारों ने उसे कितनी गंभीरता से लिया।

कश्मीर में आतंकवाद निस्संदेह बड़ी समस्या है। उसमें कई गुमराह कश्मीर नौजवान भी आतंकी संगठनों से जुड़ जाते हैं। पर इसका यह अर्थ कतई नहीं लगाया जा सकता कि इसके लिए सभी कश्मीरियों को अपमानित किया जाए, उनके साथ हिंसक बर्ताव किया जाए। लखनऊ या दूसरे अन्य शहरों में जिन भी कश्मीरी लोगों पर हमले हुए, वे खुद कश्मीर के हालात के सताए हुए हैं। वे इसीलिए कश्मीर छोड़ कर दूसरे शहरों में गए हैं कि थोड़े बेहतर हालात में जीवन बसर कर सकें, कुछ कमा सकें, अपने बच्चों की परवरिश कुछ बेहतर तरीके से कर सकें। मगर हैरानी की बात है कि लोगों में सोचने-समझने की क्षमता, उनका विवेक ऐसी स्थितियों में कहां बिला जाते हैं कि थोड़ा ठहर कर तर्क करना जरूरी नहीं समझते। यों तो सभी इस पक्ष में खड़े दिखते हैं कि कश्मीर भारत का अभिन्न हिस्सा है, पर जब लोग कश्मीरियों पर हमले करने उतरे, तो वे यह तर्क क्यों नहीं कर पाए कि अगर कश्मीर हमारा है, तो कश्मीरियों को पराया कैसे मान लें।

हालांकि ऐसी घटनाएं पहले भी अनेक बार हो चुकी हैं, जब लोग विवेकशून्य होकर हमलावर भीड़ में तब्दील हो जाते हैं। चाहे वह असम में हिंदी भाषियों पर हमला रहा हो या मुंबई में बाहरी लोगों पर, सब इसी विवेकहीनता की वजह से घटित हुए। एक गणराज्य में किसी भी नागरिक को कहीं भी जाकर बसने, काम करने का अधिकार होता है। उसे उसकी भाषा, जाति, समुदाय के आधार पर अलग-थलग नहीं किया जा सकता। मगर जैसे कुछ लोग इसी ताक में रहते हैं कि उन्हें हिंसा करने का मौका मिले और वे करें। ऐसी हिंसक प्रवृत्ति का फायदा उठाते हैं कुछ संकीर्ण स्वार्थों वाले शरारती लोग। वे लोगों को उकसाते, कोई अफवाह फैलाते हैं और फिर हिंसा का सिलसिला शुरू हो जाता है। ऐसे में गृहमंत्रालय के परामर्श पर राज्य सरकारें कितनी गंभीरता से अमल करेंगी, यह देखने की बात है। जब तक राजनीतिक इच्छाशक्ति दृढ़ नहीं होगी, ऐसी घटनाएं चुनौती बनी रहेंगी।