दिल्ली में वायु प्रदूषण बढ़ते जाने का अनुभव यहां के लोगों को रोज होता है। जब-तब होने वाले अध्ययन भी इसकी पुष्टि करते हैं। एक ताजा अध्ययन ने खतरे की घंटी और जोर से बजाई है। स्वयंसेवी संगठन ‘ग्रीनपीस’ के सर्वे के मुताबिक राजधानी की हवा विश्व स्वास्थ्य संगठन की ओर से तय किए गए निरापद-स्तर से दस गुना ज्यादा प्रदूषित हो चुकी है।

यह सर्वे तेईस जनवरी से बारह फरवरी के बीच दिल्ली के अलग-अलग इलाकों में स्थित पांच स्कूलों में किया गया। अगर सर्वे इससे कुछ दिन पहले यानी उन दिनों हुआ होता जब जाड़ा चरम पर होता है, तो हवा में पीएम-2.5 नाम के खतरनाक तत्त्वों की मौजूदगी शायद और ज्यादा दर्ज हुई होती। हवा की जांच इन स्कूलों के भीतर हुई। इससे यह धारणा ध्वस्त हो जाती है कि वायु प्रदूषण की भयावहता सड़कों पर ही है। जाहिर है, दिल्ली के बच्चे चाहे सड़क पर हों या स्कूल के भीतर, जहरीली हवा में सांस लेने को विवश हैं। ऐसे में उनका कैसा शारीरिक और मानसिक विकास होगा? यह सवाल कभी इतने जोर से नहीं उठता कि कोई व्यापक बहस शुरू हो सके। शायद यह सवाल जोर-शोर से उठने ही नहीं दिया जाता। इसलिए कि फिर गाड़ियों की नित बढ़ती संख्या से लेकर विकास के प्रचलित मॉडल तक अनेक असुविधाजनक सवाल उठेंगे।

दिल्ली को विश्वस्तरीय शहर बनाने की बातें होती हैं, कभी मुंबई को शंघाई जैसा बनाने का सपना दिखाया जाता है, काशी को क्योतो तो किसी और शहर को सिंगापुर की तर्ज पर विकसित करने का दम भरा जाता है। स्मार्ट सिटी का जुमला भी चल पड़ा है। लेकिन कोई शहर वर्ल्ड क्लास घोषित कर दिया जाए या स्मार्ट, अगर वहां की हवा सांस लेने लायक न हो तो क्या वह शहर रहने लायक होगा? क्या उसे हम पसंदीदा शहर मानेंगे? समय आ गया है कि हम नगर नियोजन का रंग-ढंग और प्राथमिकताएं बदलें और अपने शहरों पर पर्यावरण की कसौटी लागू करें। चीन और भारत, दोनों पर तेज विकास दर की होड़ हावी है। लेकिन इस चक्कर में इन दोनों देशों ने बड़े पैमाने पर अपने पर्यावरण का बिगाड़ किया है। पहले बेजिंग दुनिया भर में वायु प्रदूषण का प्रतीक बना, अब दिल्ली का हाल बेजिंग से भी बुरा हो चला है। पर यह अचानक नहीं हुआ है, इसका सिलसिला कोई आठ साल से चल रहा है। वर्ष 2000 से 2005 के बीच दिल्ली में सांस की बीमारियों में गिरावट दर्ज हुई थी।

गौरतलब है कि वर्ष 2000 में ही दिल्ली में पंजीकृत बसों, टैक्सियों और तिपहिया वाहनों के लिए सीएनजी की अनिवार्यता लागू की गई। कुछ साल तक इसका सकारात्मक असर दिखा। मगर गाड़ियों की तेजी से बढ़ती तादाद ने इस उपलब्धि पर पानी फेर दिया है। लिहाजा, सीएनजी का इस्तेमाल अनिवार्य होने के पांच-छह साल बाद से होने वाले सर्वेक्षणों में वायु प्रदूषण का ग्राफ फिर से चढ़ने और उसके फलस्वरूप सांस की बीमारियां बढ़ने के आंकड़े आने लगे। ये तकलीफें बड़ों के अलावा बच्चों में भी बढ़ी हैं। ताजा अध्ययन बताता है कि यह सिलसिला और तेज हुआ है और इस हद तक पहुंच गया है कि दिल्ली के लोगों की सेहत की कीमत पर ही उसकी अनदेखी की जा सकती है। दिल्ली आखिर कब चेतेगी!

 

फेसबुक पेज को लाइक करने के लिए क्लिक करें- https://www.facebook.com/Jansatta

ट्विटर पेज पर फॉलो करने के लिए क्लिक करें- https://twitter.com/Jansatta