सरकार के अब तक के रवैए को देखते हुए रेलवे को लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ताजा घोषणा ने बहुतों को चौंकाया होगा। गुरुवार को अपने निर्वाचन क्षेत्र वाराणसी में उन्होंने कहा कि यह धारणा गलत है कि रेलवे का निजीकरण किया जा रहा है; रेलवे का निजीकरण नहीं होगा; हम इस दिशा में नहीं जा सकते; यह न तो हमारी इच्छा है न सोच। लेकिन यह स्पष्टीकरण विरोधाभासी है, क्योंकि इसी मौके पर उन्होंने यह भी कहा कि भारतीय रेलवे के बुनियादी ढांचे में सुधार के लिए विदेशी और निजी क्षेत्र की पूंजी के इस्तेमाल से चिंतित नहीं होना चाहिए। फिर, निजीकरण न होने का भरोसा वे कैसे दिला रहे हैं! यह सही है कि रेलवे में एकमुश्त निजीकरण की कोई योजना सरकार ने पेश नहीं की है। लेकिन टुकड़े-टुकड़े में कई चीजों को निजी हाथों में सौंपने की तैयारी के संकेत खुद रेल मंत्रालय देता रहा है। यही नहीं, इस तरह के बहुत-से प्रस्तावों को सरकार की स्वीकृति भी मिल चुकी है और कई प्रस्ताव विचाराधीन हैं। रेलवे से जुड़े श्रमिक संगठन इस पर अपना विरोध जताते रहे हैं, वे आंदोलन की चेतावनी भी दे चुके हैं।

मोदी ने रेलवे का निजीकरण न करने की बात रेल कर्मचारियों और अधिकारियों को संबोधित करते हुए कही। क्या इस आश्वासन का मकसद संभावित विरोध की सुगबुगाहट को शांत करना भर है, या सचमुच रेलवे के निजीकरण का सरकार का कोई इरादा नहीं है? मोदी सरकार रेलवे के कोई सत्रह क्षेत्रों में सौ फीसद एफडीआइ की मंजूरी दे चुकी है। सिग्नल सिस्टम के आधुनिकीकरण और रखरखाव, लाजिस्टिक पार्क के निर्माण, लोकोमोटिव और कोच के निर्माण से लेकर अत्यंत तेज रफ्तार वाली ट्रेनों तक, रेलवे की अनेक परियोजनाओं का ताना-बाना विदेशी निवेश और निजीकरण के बल पर ही बुना गया है। अलबत्ता किस क्षेत्र में कितना विदेशी निवेश आएगा, इसकी तस्वीर अभी साफ नहीं है। सदानंद गौड़ा की जगह रेल मंत्रालय की कमान प्रभु जोशी को सौंपी गई, जो निजीकरण और विदेशी निवेश को रामबाण मानने के अपने नजरिए के लिए जाने जाते हैं। दूसरी ओर, प्रधानमंत्री कह रहे हैं कि निजीकरण नहीं होगा, जबकि सरकार की योजनाएं और फैसले दूसरी ही कहानी कहते हैं। अगर सरकार यह मानती है कि निजीकरण और एफडीआइ से रेलवे का भला होगा, और इस नीति पर वह चल भी रही है, तो इसे वह छिपाना क्यों चाहती है? भ्रामक बयान क्यों दिए जा रहे हैं? दूसरा सवाल यह उठता है कि रेलवे का कायाकल्प करने के नाम पर जो योजनाएं बनाई जा रही हैं, उनसे किसका भला होगा? प्रीमियम और बुलेट ट्रेन के किराए क्या साधारण लोगों को पुसा सकते हैं? फिर, इन पर रेलवे के संसाधन क्यों झोंके जा रहे हैं?

रेलवे की प्राथमिकताओं में गरीब लोग कहां हैं? आज भी रेलवे के हजारों फाटक चौकीदार-रहित हैं, कई बार इस वजह से हादसे भी होते हैं। जर्जर पुलों के पुनर्निर्माण से लेकर रेल सुरक्षा की तमाम परियोजनाएं धन की कमी से जूझ रही हैं। लक्ष्य से बरसों पीछे चलने वाली केंद्र की परियोजनाओं में सबसे ज्यादा रेलवे की हैं। इसके फलस्वरूप इन परियोजनाओं की लागत बढ़ती जाती है। रेलवे के नीति नियंता यह राग अलापते नहीं थकते कि सबसे बड़ी समस्या घाटे की है और किराया और मालभाड़ा बढ़ाना एकमात्र उपाय है। इसी तर्क पर इस साल के रेल बजट से पहले ही किराए और मालभाड़े में भारी बढ़ोतरी कर दी गई, जबकि यूपीए सरकार के ऐसे कदम पर संसद की अनदेखी करने का आरोप लगाते हुए तब के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को पत्र लिख कर मोदी ने विरोध जताया था! किराए तो बढ़ गए, पर आम लोगों के लिए रेल-सुविधाओं में कितना इजाफा हुआ?

 

 

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