रविवार को मुफ्ती मोहम्मद सईद के जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री के रूप में शपथ लेते ही दो महीने तक चले ऊहापोह का अंत हो गया। ऐसा पहली बार नहीं हुआ कि राज्य में त्रिशंकु विधानसभा बनी हो और साझा सरकार के अलावा कोई चारा न रह गया हो। कांग्रेस और नेशनल कॉन्फ्रेंस के गठबंधन की सरकार कई बार बनी है। कांग्रेस और पीडीपी भी सत्ता में साझेदारी कर चुकी हैं। मगर इस बार चुनाव नतीजों ने अपूर्व स्थिति पैदा कर दी। त्रिशंकु विधानसभा में जहां घाटी से अधिकतर सीटें पीडीपी को मिलीं, वहीं जम्मू से भाजपा को। लिहाजा, इन्हीं दोनों पार्टियों पर राज्य को स्थिर सरकार देने का दारोमदार आ पड़ा। दोनों पार्टियों का गठजोड़ किसी भी और सियासी मेल से ज्यादा मुश्किल था। जम्मू-कश्मीर को लेकर भाजपा का रुख तमाम पार्टियों से भिन्न रहा है, पीडीपी से तो और भी ज्यादा। भाजपा की निगाह में पीडीपी नरम अलगाववादी पार्टी रही है।
यह दिलचस्प है कि भाजपा के विधायकों ने राज्य के उसी संविधान की शपथ ली जिसके खिलाफ उनकी पार्टी कभी जोर-शोर से आंदोलन चला चुकी है। ‘हिंदू राष्ट्रवादी’ भाजपा हालात का हवाला देकर ‘नरम अलगाववादी’ पीडीपी के नेतृत्व में सरकार बनाने को राजी हो गई। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी समेत भाजपा के अनेक वरिष्ठ नेताओं ने शपथ ग्रहण समारोह में शिकरत की। भाजपा के निर्मल सिंह को उपमुख्यमंत्री पद मिला है। पूर्व अलगाववादी पीपुल्स कॉन्फ्रेंस के सज्जाद गनी लोन भी भाजपा के कोटे से मंत्री बन गए। मुख्यमंत्री और मंत्रियों के शपथ ग्रहण तक तो सब कुछ घोषित कार्यक्रम के मुताबिक चला। मगर भाजपा के लिए सिर मुड़ाते ही ओले पड़े। शपथ ग्रहण के बाद पत्रकारों से बातचीत के दौरान मुफ्ती मोहम्मद सईद ने राज्य में शांतिपूर्वक चुनाव संपन्न होने के लिए अलगाववादियों, उग्रवादियों और पाकिस्तान का भी आभार जताया। मजे की बात है कि इसके बाद भी निर्मल सिंह मुख्यमंत्री सईद को परिपक्व राजनेता बताते रहे। जबकि केंद्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह सईद के बयान से पल्ला झाड़ते नजर आए; उन्होंने निर्वाचन प्रक्रिया सकुशल पूरी होने का श्रेय राज्य की जनता और सुरक्षा बलों को दिया। सईद ने जो कहा, अगर वह व्यंग्य में कहा हो, तो कोई बात नहीं। पर तब वैसा लहजे से जाहिर होना चाहिए था।
बहरहाल, दो ध्रुवों का मेल बिठाने के लिए गठजोड़ का जो एजेंडा तय किया गया है उसमें साफ-सुथरा प्रशासन देने, राज्य की जनता के हित में काम करने और इसके लिए शांति-स्थायित्व का माहौल बनाने की बात कही गई है। मगर ये ऐसी सामान्य बातें हैं जो किसी भी पार्टी के घोषणापत्र और किसी भी सरकार के नीति-वक्तव्य में मिल जाएंगी। गौरतलब यह है कि विवादास्पद मसलों से साझा सरकार कैसे निपटेगी। धारा 370 को समाप्त करने का झंडा उठाए रखने वाली भाजपा ने इस मामले में यथास्थिति बनाए रखने की बात मान ली है। उसने यह भी स्वीकार कर लिया है कि राज्य के सभी समूहों से बातचीत में हुर्रियत को शामिल किया जाएगा। वहीं अफस्पा यानी सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून को लेकर पीडीपी को अपना रुख नरम करना पड़ा है। गठजोड़ के एजेंडे में इस मामले में सिर्फ यह कहा गया है कि जरूरत पड़ने पर उपद्रवग्रस्त क्षेत्र को अधिसूचित किया जाएगा। इस तरह दोनों पार्टियों ने साझा एजेंडे को लेकर भरसक सतर्कता बरती है; यह संदेश देना चाहा है कि यह किसी की हार या किसी की जीत नहीं है। मगर कई मामलों में अस्पष्टता बनी हुई है। आपसी विश्वास पुख्ता हो और राजनीतिक दूरंदेशी हो, तो ऐसे मामलों में बाद में भी साझा रुख तय किया जा सकता है। यह गठजोड़ विरोधाभासों का मेल जरूर है, पर यह एक प्रयोग और चुनौती भी है।
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