राष्ट्रीय पर्वों और त्योहारों के आसपास आतंकी संगठन अक्सर सुरक्षा व्यवस्था को चुनौती देने का प्रयास करते हैं। इसके मद्देनजर खासी चौकसी बरती जाती है। इसके बावजूद अगर वे अपने मंसूबे में कामयाब हो जाते हैं, तो सुरक्षा संबंधी तैयारियों पर सवाल उठने स्वाभाविक हैं। खासकर कश्मीर के सीमा से लगे इलाकों में अगर फिदायीन सैनिक शिविर में घुस आएं तो यह और चिंता का विषय है।
गुरुवार की सुबह राजौरी के दारहल सैन्य शिविर में दो आतंकी उसी तरह घुस आए, जैसे उड़ी में घुस गए थे। हालांकि समय रहते सुरक्षाकर्मियों ने उन्हें मार गिराया। मगर उन्होंने कड़ी टक्कर दी, जिसमें तीन सैनिक शहीद हो गए और पांच घायल हैं।
यह हैरानी का विषय है कि इतनी चौकसी के बावजूद कैसे वे दोनों आतंकी सैन्य शिविर के भीतर तक पहुंच गए। इस घटना के एक दिन पहले बडगाम जिले में सुरक्षाबलों के साथ आतंकियों की मुठभेड़ हुई थी, जिसमें तीन आतंकी मार गिराए गए।
उसी दिन पुलवामा में पुलिस ने करीब तीस किलो विस्फोटक बरामद किया, जिसका इस्तेमाल किसी बड़ी घटना को अंजाम देने के लिए किया जाना था। इन तीनों घटनाओं से एक बार फिर रेखांकित हुआ है कि पुलिस और सेना की तमाम चौकसी और कड़ाई के बावजूद घाटी में आतंकी गतिविधियां कमजोर नहीं पड़ी हैं।
जम्मू-कश्मीर का विशेष राज्य का दर्जा समाप्त होने के बाद लंबे समय तक घाटी में कर्फ्यू लगा रहा। उसके पहले से तलाशी अभियान चला कर आतंकी संगठनों के ठिकानों को ध्वस्त किया जाता रहा। वित्तीय मदद पहुंचाने वालों की पहचान कर उन्हें सलाखों के पीछे डाला गया। अलगाववादियों पर शिकंजा कसा जा चुका है।
सीमा पार से होने वाली घुसपैठ पर पैनी नजर बनी हुई है। पाकिस्तानी सीमा में चल रहे आतंकी प्रशिक्षण शिविरों पर लगातार नजर रखी जा रही है। कहा जाता रहा है कि अब स्थानीय लोगों से भी दहशतगर्दों को मदद नहीं मिल पा रही। ऐसे में सरकार दावा करती रही कि घाटी में आतंकवाद की रीढ़ टूट चुकी है।
मगर हकीकत यह है कि आतंकवादी घटनाओं में बहुत कमी नहीं आई है। वे हमले का अपना तरीका जरूर बदलते रहे हैं। सुरक्षा बलों के काफिले, उनकी चौकियों तक पर हमले बंद नहीं हुए। इससे जाहिर है कि सुरक्षा बलों की हर रणनीति को वे चुनौती देते रहे हैं। करीब महीना भर पहले खुद केंद्र सरकार ने आंकड़ा जारी कर बताया था कि घाटी में आतंकी संगठनों में युवाओं की भर्ती का सिलसिला थमा नहीं है।
जम्मू-कश्मीर में इस वक्त उपराज्यपाल के जरिए केंद्र का ही शासन है। पाकिस्तान से भारत को आने वाले रास्ते बंद हैं। अलगाववादी संगठन अलग-थलग पड़े हुए हैं। वित्तीय मदद पहुंचाने वाले ज्यादातर जेलों में बंद हैं।
फिर भी अगर घाटी में नई भर्तियां रुक नहीं रही हैं, उन्हें विस्फोटक और गोला-बारूद-बंदूकों की आपूर्ति पहले की तरह हो पा रही है और वे सैन्य शिविरों तथा सुरक्षा बलों के काफिलों आदि के बारे में खुफिया जानकारियां हासिल कर पा रहे हैं, तो फिर कैसे भरोसा किया जा सकता है कि वहां अमन की सूरत जल्दी बन सकेगी।
वहां लोकतांत्रिक प्रक्रिया बहाल करने की मांग लंबे समय से चल रही है। मगर इसी तरह आतंकी संगठन वहां सक्रिय रहे, तो चुनाव कराना और लोकतांत्रिक प्रक्रिया बहाल करना आसान नहीं होगा। विशेषज्ञ सुझाव देते रहे हैं कि आतंकवादियों से तो सरकार बेशक हथियार के बल पर निपटे, मगर स्थानीय लोगों का भरोसा जीतने का भी प्रयास होना चाहिए।