सबरीमला मंदिर का संचालन करने वाले त्रावणकोर देवस्वओम बोर्ड ने आखिरकार सर्वोच्च न्यायालय के आदेश का पालन करने पर सहमति जताई है। बोर्ड की तरफ से पेश हुए वकील ने संविधान में वर्णित सभी व्यक्तियों के धर्म पालन के समान अधिकार का उल्लेख करते हुए स्वीकार किया कि किसी वर्ग विशेष के साथ उसकी शारीरिक अवस्था की वजह से पक्षपात नहीं किया जाना चाहिए। इस तरह आयु विशेष की महिलाओं के सबरीमला मंदिर में प्रवेश संबंधी प्रतिबंध हटने की स्थिति बनी है। अभी तक सबरीमला मंदिर में एक खास आयुवर्ग की महिलाओं के प्रवेश का निषेध था। इस पर जब यंग इंडियन लायर्स एसोसिएशन ने जनहित याचिका दायर की, तो त्रावणकोर देवस्वओम बोर्ड और अनेक संगठनों ने उसका यह कहते हुए विरोध किया था कि सबरीमला मंदिर में भगवान अयप्पा का विशेष स्वरूप है और इसे संविधान के तहत संरक्षण प्राप्त है, इसलिए महिलाओं के प्रवेश की अनुमति मंदिर की गरिमा को चोट पहुंचाएगी। मगर सर्वोच्च न्यायालय ने तमाम सुनवाइयों के बाद मंदिर में महिलाओं के प्रवेश की अनुमति दे दी थी। उसके बाद भी देवस्वओम बोर्ड और उसके तर्कों से सहमत तमाम संगठन और राजनीतिक दल विरोध करते रहे। मंदिर के आसपास कड़ा पहरा लगा दिया गया, ताकि कोई महिला प्रवेश न करने पाए।

सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के बावजूद जब सबरीमला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश पर प्रतिबंध लगा रहा, तो विरोध प्रदर्शन तेज हो गए। इस बीच कुछ महिलाएं मंदिर में प्रवेश कर गईं, तो मंदिर संचालन बोर्ड ने मंदिर को पवित्र करने का अनुष्ठान कराया। उन महिलाओं की सुरक्षा खतरे में पड़ गई। राज्य सरकार और मंदिर की विशेष स्थिति के पक्ष में खड़े लोगों के बीच तनातनी का माहौल बना रहा। इस पर सर्वोच्च न्यायालय ने एक बार फिर सुनवाई की और मंदिर संचालन बोर्ड का पक्ष जानना चाहा। उसमें बोर्ड की तरफ से पेश हुए वकील ने मान लिया कि महिलाओं को मंदिर में प्रवेश मिलना चाहिए। यह विवेकपूर्ण कदम है। एक लोकतांत्रिक समाज में इस तरह का भेदभाव किसी भी रूप में उचित नहीं कहा जा सकता। इसके पहले शनि शिंगणापुर मंदिर में भी महिलाओं का प्रवेश प्रतिबंधित था, पर कुछ महिला संगठनों ने इसे कानूनी चुनौती दी, तो वहां भी महिलाओं का प्रवेश सुनिश्चित हो सका। यह ठीक है कि धर्म और आस्था के मामले में बहुत सारे तर्कों का कोई मतलब नहीं होता, पर जैसे-जैसे सामाजिक स्थितियां बदलती हैं, लोगों के सोचने-समझने के स्तर का विकास होता है तो परंपरा से चली आ रही कई मान्यताएं और धारणाएं भी बदलती हैं। वैसे में आस्था से जुड़े सवालों को भी पुनर्व्याख्यायित करने की जरूरत पड़ती है। इस लिहाज से सबरीमला मंदिर मामले में बोर्ड का कदम सराहनीय है।

महिलाओं की पवित्रता-अपवित्रता से जुड़ी अनेक प्राचीन मान्यताएं अब तर्क की कसौटी पर बेमानी साबित हो चुकी हैं। वैज्ञानिक तथ्यों के आलोक में बहुत सारी रूढ़ियां ध्वस्त हो चुकी हैं। इसलिए सबरीमला संचालन बोर्ड का उनकी पवित्रता-अपवित्रता को लेकर दृष्टिकोण संकीर्ण ही साबित हो रहा था। फिर जब हमारा संविधान सभी नागरिकों को, चाहे वे महिला हों या पुरुष, धर्म और आस्था के मामले में भी समान अधिकार देता है, तो कुछ मंदिरों में विशेष स्थिति का तर्क देते हुए उन्हें इससे वंचित रखना एक तरह से संवैधानिक मर्यादा के भी खिलाफ है। अच्छी बात है कि सबरीमला संचालन बोर्ड ने महिलाओं के लिए प्रवेश द्वार खोलने पर सहमति व्यक्त की है।