कालेधन को लेकर लंबे समय से विवाद चल रहा है। यूपीए सरकार के समय जब भारतीय नागरिकों का विदेशी बैंकों में भारी मात्रा में कालाधन जमा होने का खुलासा हुआ, तो उन खाताधारकों के नाम उजागर करने और वह धन वापस लाने की मांग जोर-शोर से उठी थी। तब इस दिशा में कुछ पहल भी हुई थी। विदेशी बैंकों में जमा भारतीय कालेधन की राशि का भी अनुमान लगाया गया था। पर कुछ विदेशी बैंकों की गोपनीयता शर्तों के चलते और कुछ सरकारी अड़चनों की वजह से उस पैसे को वापस लाने की उम्मीद बलवती नहीं हो सकी। हालांकि सरकार के पास कालेधन से संबंधित तीन रिपोर्टें हैं, जिनमें कुछ खाताधारकों के बारे में जानकारी उपलब्ध है। इसके अलावा निजी तौर पर खुफियागीरी करने वाले कुछ लोगों ने भी विभिन्न बैंकों में जमा भारतीय कालेधन के बारे में जानकारियां उपलब्ध करा रखी हैं। उनमें कितनी सच्चाई है, यह जांच का विषय है। पर सरकार के पास जो अपने आधिकारिक सूत्रों से जानकारियां उपलब्ध हैं, उन्हीं का विश्लेषण नहीं हो पाया है। इसलिए सूचना के अधिकार कानून के तहत जब कालेधन के बारे में जानकारी मांगी गई तो केंद्रीय वित्त मंत्रालय ने यह कहते हुए जानकारी उपलब्ध कराने से मना कर दिया कि इससे संसद के विशेषाधिकार का हनन होगा।

वित्त मंत्रालय ने माना है कि अलग-अलग समय पर जो रिपोर्टें उसे प्राप्त हुर्इं, उन्हें वित्त पर संसद की स्थायी समिति को भेज दिया गया है, जिसकी वह जांच करेगी। यह सही है कि संसदीय समिति के पास जिस मामले की जांच लंबित है, उसके बारे में जानकारी सार्वजनिक करना उचित नहीं होगा। पर हैरानी की बात है कि सरकार को जो आखिरी रिपोर्ट सौंपी गई उसे चार साल से ऊपर होने को आया। पहली रिपोर्ट करीब आठ साल पहले सौंपी गई थी और दूसरी पांच साल पहले। इतने समय तक इन रिपोर्टों की जांच क्यों नहीं हो पाई। पिछले लोकसभा चुनाव के दौरान कालेधन को प्रमुख मुद्दा बनाया गया था, विदेशों से कालाधन वापस लाने का भरोसा दिलाया गया था। अब तक उस दिशा में कोई सार्थक पहल नहीं हो पाई, तो सवाल उठने स्वाभाविक हैं।

विदेशी बैंकों में भारतीय पैसा जमा कराने का तथ्य जगजाहिर है। यह पैसा किस तरह उन बैंकों में पहुंचता है, यह बात छिपी नहीं है। यह भी सब जानते हैं कि अगर विदेशी बैंकों में पैसा जमा कराने की प्रवृत्ति पर रोक लगाने में कामयाबी मिल जाए, तो भ्रष्टाचार के बहुत सारे मामले अपने आप रुक जाएंगे। फिर भी भ्रष्टाचार पर रोक लगाने का नारा देने के बावजूद इस दिशा में कोई कारगर कदम नहीं उठाया जा सका है। भ्रष्टाचार के जरिए जुटाया धन विदेशी बैंकों में भेजने वालों के बारे में भी स्पष्ट है। इनमें ज्यादातर लोग बड़े कारोबारी या फिर राजनेता और प्रशासनिक अधिकारी हैं। विदेशी बैंक इस तरह के खाताधारकों की पहचान पूरी तरह गोपनीय रखते हैं और अगर उनकी पहचान पता चल भी जाए, तो वह पैसा निकालना सरकारों के लिए खासी मशक्कत का काम है। इसलिए जिन कुछ मामलों में भारत सरकार ने पैसा वापस लाने का प्रयास किया, संबंधित बैंकों और वहां की सरकारों के साथ करार करने की कोशिश की, तो वह विफल ही साबित हुई। इससे एक बार फिर यही साबित हुआ है कि राजनीतिक पार्टियां कालेधन को वापस लाने का चाहे जितना बढ़-चढ़ कर दावा करें, यह मामला फिलहाल परदे में ही बना रहने वाला है।