बिहार की कमान फिर से नीतीश कुमार के हाथ में आने के साथ ही एक पखवाड़े से राज्य में चल रही उथल-पुथल का पटाक्षेप हो गया। जनता दल (एकी) में यह आम भावना बन गई थी कि जीतन राम मांझी की अगुआई में यानी उनके मुख्यमंत्री रहते पार्टी चुनाव नहीं जीत पाएगी। सत्तारूढ़ पार्टी के विधायक दल के लिए अपना नेतृत्व में बदलाव कोई नई बात नहीं है। कांग्रेस में यह होता रहा है, भाजपा में भी इसके अनेक उदाहरण मिल जाएंगे। मगर भाजपा ने जद (एकी) की इस पहल में फच्चर फंसाना शुरू किया, उसकी मदद का आश्वासन पाकर मांझी ने मुख्यमंत्री पद से न हटने की ठान ली।

पर यह शुरू से साफ था कि भाजपा के सत्तासी विधायकों का समर्थन मिलने पर भी दो सौ तैंतीस सदस्यीय विधानसभा में मांझी बहुमत साबित नहीं कर पाएंगे। आखिरकार विश्वास मत के लिए तय समय से कोई आधा घंटा पहले मांझी ने इस्तीफा दे दिया। जो हुआ, उससे बिहार को लेकर भाजपा की मंशा नाकाम हो गई लगती है। अमित शाह की अगुआई में भाजपा ने आक्रामक प्रचार अभियान के अलावा दूसरे दलों में सेंधमारी का भी रवैया अख्तियार किया हुआ है। मगर दिल्ली के विधानसभा चुनावों में बुरी तरह शिकस्त खाने के बाद बिहार में भी शाह की रणनीति को जबर्दस्त झटका लगा है।

अब भाजपा की उम्मीद इस पर टिकी है कि मांझी के मामले को वह महादलित समुदाय के साथ हुई नाइंसाफी के तौर पर प्रचारित कर सके। मगर मांझी के व्यवहार में इतनी अनिश्चितता है कि उनके भरोसे कोई रणनीति बना पाना मुश्किल है। इस्तीफा देने के साथ ही उन्होंने अपने हालिया रुख में बदलाव की संभावना का भी संकेत दिया है, यह कह कर कि उनके कमरे में अब भी नीतीश कुमार की तस्वीर वैसे ही टंगी है। मांझी अगर अलग पार्टी बनाते हैं, तो भाजपा के लिए यह राहत की बात होगी, क्योंकि तब वह यह सोच सकती है कि महादलितों के वोट नीतीश के पाले में नहीं जाएंगे। पर मांझी ने अलग पार्टी नहीं बनाई और अपने पूर्व-साथियों से फिर से तार जोड़ लिए, तो भाजपा की इस उम्मीद पर भी पानी फिर जाएगा। बहरहाल, नीतीश कुमार को उनकी पार्टी के अलावा राष्ट्रीय जनता दल, कांग्रेस, भाकपा और एक निर्दलीय का समर्थन हासिल है। यह दिलचस्प है कि पिछले विधानसभा चुनाव में भाजपा और लोक जनशक्ति पार्टी उनके साथ थी; कांग्रेस और लालू प्रसाद यादव दूसरी तरफ थे। अब लालू और कांग्रेस उनके साथ हैं और रामविलास पासवान विरोधी भाजपा के पाले में।

जद (एकी) और राजद के गठजोड़ से पार पाना भाजपा के लिए आसान नहीं होगा। फिर, दिल्ली के नतीजों ने मोदी की चमक फीकी कर दी है। ऐसे में भाजपा की उम्मीद का आधार यही रह जाता है कि नीतीश कुमार की नई पारी में सत्ता-विरोधी रुझान या सरकार के कामकाज को लेकर संभावित असंतोष का चुनावी लाभ उसे मिले। लेकिन इसमें कई अड़चनें हैं। एक यह कि दूसरी पार्टी में तोड़-फोड़ की भाजपा की कोशिशों से गलत संदेश गया है, और यह नीतीश के प्रति सहानुभूति का भी सबब बन सकता है। दूसरे, बिहार में चुनावी गणित बहुत कुछ जातिगत समीकरणों पर भी निर्भर करता रहा है। फिर, जद (एकी) और राजद का गठजोड़ अरविंद केजरीवाल की तर्ज पर मुख्यमंत्री पद की उम्मीदवारी को भी एक खास मुद््दा बनाना चाहता है। जबकि भाजपा के पास नीतीश के मुकाबले का कोई कद््दावर नेता नहीं है, जिसे वह मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में पेश कर चुनाव जीतने की आस लगा सके। अगर नीतीश की नई पारी का कामकाज संतोषजनक रहा, तो भाजपा के लिए जद (एकी) में दरार डालने का प्रयास और भी महंगा साबित हो सकता है।

 

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