राज्यसभा में भाजपा के कमजोर संख्याबल को देखते हुए पहले ही साफ था कि सरकार के लिए भूमि अधिग्रहण विधेयक को कानूनी रूप दे पाना संभव नहीं हो पाएगा। मौजूदा अध्यादेश की अवधि पांच अप्रैल को खत्म हो रही है और उससे पहले इसे कानूनी शक्ल देना अनिवार्य था। लेकिन जब आखिरकार सरकार को महसूस हो गया कि किसी भी सूरत में इससे पहले राज्यसभा में विधेयक पारित कराना संभव नहीं है तो उसने दुबारा उस अध्यादेश को जारी रखने का रास्ता अख्तियार किया। हालांकि सरकार के पास विकल्प था कि वह संसद का साझा सत्र बुला कर विधेयक को पारित करा ले। पर देश भर में इस मसले पर जैसा विरोध का माहौल बन चुका है, उसमें सरकार के इस कदम का सीधा संदेश यही जाता कि वह किसान-विरोधी है और बड़े कॉरपोरेटों के हक में काम कर रही है। शायद इसी के मद्देनजर उसने साझा सत्र का खयाल छोड़ दिया। संविधान में केवल आपात स्थिति में और जब संसद का सत्र नहीं चल रहा हो तभी अध्यादेश जारी करने का प्रावधान है। मगर विचित्र है कि भूमि अधिग्रहण अध्यादेश पहले तो शीतकालीन सत्र के दूसरे ही रोज जारी किया गया था, फिर बजट सत्र में जब कानून बनाने को लेकर विपक्ष का साथ नहीं मिल सका तो उसने कुछ संशोधनों के साथ उसी अध्यादेश को जारी रखने का फैसला किया।
लेकिन सवाल है कि अगर केंद्रीय मंत्रिमंडल ने दुबारा अध्यादेश को मंजूरी दी है तो क्या यह इसे हर हाल में कानूनी जामा पहनाने को लेकर सरकार की जिद का सबूत नहीं है! विपक्षी दलों की मुख्य मांग है कि अधिग्रहण के पहले सहमति और परियोजनाओं के सामाजिक प्रभाव के आकलन के प्रावधानों को अनिवार्य बनाया जाए। सरकार सफाई दे सकती है कि उसने विपक्ष की आपत्तियों के मद्देनजर विधेयक में कई संशोधन किए हैं। मसलन, आदिवासी क्षेत्र में अधिग्रहण को पंचायत की मंजूरी को जरूरी बनाया गया है, औद्योगिक कॉरीडोर के लिए अधिग्रहण की एक सीमा होगी, ‘प्राइवेट एंटिटी’ की जगह ‘प्राइवेट इंटरप्राइज’ शब्द जोड़ा गया है और प्रभावित मजदूरों के परिवार में एक रोजगार देने जैसे कुछ प्रावधान किए गए हैं। लेकिन इनमें जोड़े या संशोधित शब्दों की जटिल व्याख्याएं क्या अधिग्रहण से प्रभावित लोगों को व्यावहारिक रूप में कोई मदद कर सकेंगी? इन सबके बावजूद सरकार विपक्षी दलों का समर्थन हासिल करने में क्यों नाकाम रही और उसकी मंशा पर अब भी भरोसा क्यों नहीं बन पाया है?
गांवों के शहरीकरण की भाजपा सरकार की महत्त्वाकांक्षा छिपी नहीं है। जाहिर है, इस कड़ी में औद्योगिक घरानों को जमीन हासिल करने की सुविधा देने के लिए भूमि अधिग्रहण कानून को आसान बनाना ही एक उपाय है। यह बेवजह नहीं है कि इस अध्यादेश के जारी होते ही इसका चौतरफा विरोध शुरू हो गया था और विपक्ष ने एक सुर में इसका विरोध किया। कांग्रेस ने यूपीए सरकार के समय बने कानून को यथावत रखने की मांग की है। हालात यह हैं कि इस मसले पर लड़ाई अब सड़क पर आ चुकी है और देश भर में भूमि अधिग्रहण अध्यादेश को जबरन जमीन छीनने वाली सरकारी कवायद के रूप में देखा जा रहा है। आखिर वे कौन-सी वजहें हैं कि करीब दो साल तक राजनीतिक दलों, सामाजिक संगठनों, किसानों और जनजातीय समुदायों के प्रतिनिधियों के बीच गंभीर बहस के बाद तैयार जिस भूमि अधिग्रहण विधेयक 2013 का खुद भाजपा ने समर्थन किया था, सत्ता में आने के बाद वही उसके लिए सिरे से बदल डालने लायक हो गया!
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