अगर एक आम नागरिक ने बैंक से कर्ज लिया हुआ हो, तो उसकी मासिक किस्त चुकाने की चिंता उस पर हमेशा सवार रहती है। देरी होने या अनियमित भुगतान पर बैंक उसे चेतावनी देते हैं, जुर्माना लगा देते हैं। न चुका पाने पर कुर्की होती है। लेकिन सरकारी बैंकों के बहुत-से बड़े-बड़े बकाएदार इससे बचे रहते हैं। वे भुगतान टालते रहते हैं। फिर मांग करते हैं कि उनकी देनदारी का पुनर्गठन किया जाए। यह कर भी दिया जाता है, और इस तरह भुगतान में सहूलियत के नाम पर उनकी देनदारी घटा दी जाती है। फिर भी बैंक सारी वसूली नहीं कर पाते, उनकी बहुत सारी रकम डूब जाती है। उसे बट््टे खाते में डाल दिया जाता है, जिसे वित्तीय शब्दावली में एनपीए यानी नॉन फरमार्मिंग एसेट्स कहते हैं। पिछले पांच साल में सरकारी बैंकों की एक लाख करोड़ रुपए की रकम एनपीए की भेंट चढ़ चुकी है। यह तथ्य खुद सरकार ने पिछले दिनों पेश किया है। जब किसानों की कर्जमाफी के लिए पिछली सरकार ने साठ हजार करोड़ रुपए मंजूर किए थे, तो आर्थिक सुधारों के पैरोकारों को वह काफी नागवार गुजरा था, उसे उन्होंने सरकारी खजाने की बरबादी करार दिया। मगर एनपीए को लेकर उन्होंने शायद ही कभी शोर मचाया हो। एनपीए का पिछले पांच साल का जो आंकड़ा सरकार ने बताया है, वास्तव में सरकारी बैंकों की डूबी गई रकम उससे अधिक ही होगी, क्योंकि इसमें कर्जों के पुनर्निर्धारण के तहत दी गई रियायतों का हिसाब शामिल नहीं है।
एनपीए साल-दर-साल बढ़ता गया है। रिजर्व बैंक की रिपोर्ट के मुताबिक इस साल मार्च में एनपीए जहां कुल कर्जों का 4.1 फीसद था, वहीं यह बढ़ कर सितंबर में साढ़े चार फीसद पर पहुंच गया। साल के अंत तक यह और अधिक हो गया होगा। एनपीए का यह आंकड़ा बेहद चिंताजनक है; इससे सरकारी बैंकों की कार्यप्रणाली पर गंभीर सवाल उठते हैं। हालांकि सरकार का कहना है कि एनपीए का अनुपात इस हद तक नहीं पहुंचा है कि सरकारी बैंकों के भविष्य की चिंता करनी पड़े; उनके पास पर्याप्त पूंजी-आधार है। पर यह दलील जवाबदेही से पल्ला झाड़ने की तरकीब के अलावा और कुछ नहीं। एनपीए दरअसल कर्ज मंजूर करने में राजनीतिक दखलंदाजी, भ्रष्टाचार और क्रोनी कैपिटलिज्म यानी याराना पूंजीवाद की देन हैं। विशाल राशि के कई कर्ज प्रस्तावित परियोजना की व्यावहारिकता और जोखिम का आकलन किए बगैर या उन्हें नजरअंदाज करके जारी कर दिए जाते हैं। इस तरह के किसी-किसी मामले में बैंक की अपनी चूक हो सकती है, पर ज्यादातर मामलों में आवेदकों की राजनीतिक आकाओं तक पहुंच काम करती है।

रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन सरकारी बैंकों को आगाह करते रहे हैं कि वे कर्ज मंजूर करने से पहले परियोजना से संबंधित दावों की बारीकी से पड़ताल करें, अतिरंजित दावों को जस का तस न मान लें, जोखिमों को नजरअंदाज न करें। उन्होंने पदभार संभालने के बाद, एनपीए और कर्जों के पुनर्निर्धारण से संबंधित रिपोर्ट, जो पहले रिजर्व बैंक की तरफ से साल में एक बार सरकार को दी जाती थी, उसकी आवृत्ति बढ़ा कर दो बार कर दी। तब से सरकार को एनपीए के बारे में पहले से जल्दी ताजातरीन रिपोर्ट मिलने लगी है। मगर एनपीए पर अंकुश लगने के बजाय उसमें और बढ़ोतरी ही होती गई है। सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के कर्जों की लूट रोकने के प्रति सरकार में इच्छाशक्ति की कमी ही इससे जाहिर होती है। वित्तमंत्री यह तो चाहते हैं कि ब्याज दरों में कटौती कर दी जाए, लेकिन वे सरकारी बैंकों के बड़े बकायों की वसूली को लेकर चिंतित क्यों नहीं हैं!

 

 

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