सात महीने बाद जम्मू-कश्मीर में फिर बाढ़ आई है, जिसमें सोलह लोगों के मारे जाने की खबर है। इस तादाद के कुछ और बढ़ने की भी आशंका जताई गई है। अलबत्ता इस बार हालात उतने भयावह नहीं हैं जितने पिछले साल सितंबर में राज्य में आई आपदा के समय थे। राहत और बचाव के काम में पिछले साल जैसी ढिलाई भी नहीं है। पर बहुतों के लिए यह अकल्पनीय ही रहा होगा कि कुछ ही माह बाद उन्हें दोबारा घरबार छोड़ किसी सुरक्षित ठिकाने की शरण लेनी पड़ेगी। तीन दिन से लगातार बारिश के कारण झेलम नदी कई जगह खतरे के निशान से ऊपर बह रही है। दो सौ चौरानबे किलोमीटर लंबे श्रीनगर-जम्मू राष्ट्रीय राजमार्ग सहित कई जगह भूस्खलन हुआ है। कश्मीर मंडल के सात जिलों में हिमस्खलन का अंदेशा भी जताया गया है। सात महीने पहले कश्मीर में भारी बारिश का कहर बरपा था तो वह साठ साल की अपूर्व घटना थी। उससे सवा साल पहले उत्तराखंड में भारी बरसात और बादल फटने से भयानक आपदा आई थी।

इस साल मार्च के पहले पखवाड़े में हुई बेमौसम की बरसात ने अनेक राज्यों में बड़े पैमाने पर फसलों की तबाही की है। कुछ रोज पहले मौसम विभाग ने भविष्यवाणी की थी कि एक बार फिर वैसी ही बेवक्त की भारी बरसात हो सकती है। यह पूर्वानुमान सही निकला है, सबसे भयावह रूप से जम्मू-कश्मीर में। जाहिर है, मौसम में तीव्र उतार-चढ़ाव का सिलसिला बढ़ रहा है। अब जलवायु बदलाव को भविष्य में आने वाली स्थिति मान कर चलना ठीक नहीं होगा, हम ग्लोबल वार्मिंग के संकट से रूबरू हो चुके हैं। लिहाजा, इससे निपटने की तात्कालिक और दीर्घकालीन, दोनों तरह की रणनीति बनानी होगी, ताकि आपदा के असर को कम से कम किया जा सके।

लगातार भारी बारिश से बाढ़ आना स्वाभाविक है। पर यह कई कारणों से ज्यादा विकराल रूप ले लेती है। नदियों और झीलों के किनारे और उनके आसपास वैध-अवैध निर्माण, अतिक्रमण, तटीय क्षेत्रों को कचरे से पाटने, जंगलों की अंधाधुंध कटाई, पारिस्थितिकी के लिहाज से संवेदनशील क्षेत्रों में भी खुदाई और भूस्खलन की आशंका वाले इलाकों में सड़कों के निर्माण का सिलसिला लंबे समय से चल रहा है। इससे नदियों और झीलों के तट सिकुड़ते गए और बाढ़ के पानी को जज्ब करने की उनकी क्षमता जाती रही। बाढ़ से बचाव के लिए तटबंधों का सहारा लिया जाता रहा है, पर ये हल्की बाढ़ में ही काम आ सकते हैं। जब भी नदियों और झीलों के तटीय क्षेत्रों में अतिक्रमण रोकने की पहल होती है, बिल्डर लॉबी उसके खिलाफ खड़ी हो जाती है। उसे कुछ राजनीतिकों का भी संरक्षण मिल जाता है।

कई बार तथाकथित विकास का व्यामोह भी तटीय इलाकों को निर्माण-कार्यों से पाटने का सबब बनता रहा है। इन्हीं वजहों से नदियों की बाबत 1982 की अधिसूचना लागू नहीं की जा सकी। केंद्रीय जल आयोग की सिफारिशें भी ठंडे बस्ते में डाल दी गर्इं। समुद्रतटीय इलाकों में भी यही हुआ है। सुनामी के कड़वे अनुभव के बावजूद समुद्रतटीय नियमन कानून को और लचर बना दिया गया; मैंग्रोव वनों को बचाने की कोई योजना नहीं बनाई गई। अब पर्यावरण संरक्षण कानून और वनाधिकार कानून को कमजोर करने की कोशिश हो रही है। जब भी आपदा नियंत्रण की बात आती है, तो आपदा बचाव प्राधिकरण और कार्रवाई बल के गठन का हवाला दिया जाता है। यह सही है कि संकटकालीन स्थितियों के लिए ऐसा कार्रवाई बल जरूरी है और उसने ऐसे मौकों पर सराहनीय काम किए हैं। सेना की टुकड़ियों ने भी पीड़ितों को सुरक्षित स्थानों पर पहुंचाने में तत्परता दिखाई है। लेकिन बचाव और राहत की तैयारी के साथ यह भी जरूरी है कि विकास की नीति और नियोजन में पर्यावरण संरक्षण को अहमियत मिले।

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