आइपीएल में सट्टेबाजी और मैच फिक्सिंग का खुलासा हुआ तो उसे निजी हित से संचालित एक व्यापक गैरकानूनी गतिविधि के रूप में देखा गया। इसके चलते क्रिकेट को हुए दूरगामी नुकसान पर चिंता जाहिर की गई थी। इस प्रकरण में शक के घेरे में आए लोगों पर आरोप एक तरह से तभी पुष्ट थे, जब करीब दो महीने पहले मुद्गल समिति की रिपोर्ट के आधार पर सर्वोच्च न्यायालय ने कुछ नामों का खुलासा कर दिया था। इन तथ्यों के बावजूद बीसीसीआइ यानी भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड के पूर्व अध्यक्ष एन श्रीनिवासन लगातार यही कहते रहे कि इस पूरे मामले में उनकी कोई भूमिका नहीं थी। मगर उस समय भी सर्वोच्च न्यायालय ने यह टिप्पणी की थी कि ऐसा लगता है, उन्होंने कुछ तो गड़बड़ की है। अब गुरुवार को अदालत के फैसले से इस मामले में लिप्त उन तमाम लोगों की कलई खुल गई है, जो लगभग स्पष्ट संलिप्तता के बावजूद खुद को मासूम बताने की कोशिश में जुटे थे। अदालत ने न सिर्फ राजस्थान टीम में भागीदार राज कुंद्रा और गुरुनाथ मेयप्पन को सट््टेबाजी का दोषी करार दिया, बल्कि हितों के टकराव के आधार पर बीसीसीआइ के किसी भी पद के लिए श्रीनिवासन के चुनाव लड़ने पर पाबंदी लगा दी। बेशक अदालत ने श्रीनिवासन को अपने दामाद गुरुनाथ मेयप्पन को बचाने के आरोप से बरी कर दिया। ये वही श्रीनिवासन हैं, जिन्होंने सट््टेबाजी के आरोपों के बाद मेयप्पन को महज ‘क्रिकेट प्रेमी’ करार दिया था। दोषी करार दिए गए लोगों के लिए सजा अदालत की तीन जजों की एक समिति बाद में निर्धारित करेगी। लेकिन इस फैसले में जिस तरह बीसीसीआइ के कुछ नियम-कायदों पर सवाल उठाए गए हैं, उससे साफ है कि खासकर श्रीनिवासन को फायदा पहुंचाने के लिए किस तरह नियमों में मनमाने तरीके से बदलाव किया गया।

सवाल है कि आखिर अदालत को बोर्ड के उस नियम को ‘असली खलनायक’ बताते हुए क्यों रद्द करना पड़ा, जिसके तहत श्रीनिवासन को चेन्नई टीम खरीदने की इजाजत दी गई थी? यह नियमों के दुरुपयोग के अलावा हितों के टकराव का मामला भी था। मगर श्रीनिवासन के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हुई, उलटे उनका ओहदा बढ़ गया और वे बीसीसीआइ के अध्यक्ष हो गए। आखिर किन वजहों से चेन्नई टीम का मालिक होने के बावजूद श्रीनिवासन को बोर्ड का अध्यक्ष बने रहने दिया गया? कुछ खास लोगों के स्वार्थों को पूरा करने के लिए बीसीसीआइ को किन तर्कों पर एक निजी संस्था के तौर पर इस्तेमाल किया गया, जबकि समूचे क्रिकेट को नियमित और संचालित करते हुए यह आमतौर पर सरकारी काम ही निपटाती है? पिछले कुछ सालों में आइपीएल में समूचा खेल और खिलाड़ी नीलामी, बोली और पैसे की ताकत से तय हो रहे हैं। क्रिकेट में चलने वाली जोड़-तोड़, धन और रसूख का खेल अब किसी से छिपा नहीं है। परदे के पीछे सट््टेबाजी और मैच फिक्सिंग के चलन ने क्रिकेट मैचों में हार-जीत को संदिग्ध बना दिया है। किसी बल्लेबाज के रन, फेंकी गई गेंद और छूट गए कैच या फिर अंपायर के फैसले अगर शक के घेरे में आ गए हैं, तो इसके लिए कौन जिम्मेदार हैं? अपने ताजा फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि खेल तभी तक खेल रह सकता है, जब तक वह साफ और सभी धांधलियों से मुक्त हो। तो क्या बीसीसीआइ को पीछे मुड़ कर अपने पिछले कुछ सालों में किए गए तमाम बदलावों पर फिर से सोचने की जरूरत महसूस होगी?

 

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