जलवायु परिवर्तन की वजह से पैदा हो रहे संकट के बीच इसके कारणों पर पिछले कई दशक से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बहसें होती रही हैं। विडंबना है कि इस मसले पर स्थितियों में लगातार चिंताजनक गिरावट के कारकों की पहचान के बावजूद किसी निदान पर सहमति नहीं बन पा रही है। खासकर जीवाश्म ईंधन के मुद्दे पर संयुक्त राष्ट्र सम्मेलनों में सभी देशों की राय हमेशा विभाजित रही है। इस बार दुबई में हो रहे सीओपी-28 में भी जलवायु संकट और बढ़ते तापमान के सभी पहलुओं पर व्यापक चिंता जाहिर की गई, मगर वहां जीवाश्म ईंधन को खत्म करने के मसले पर एक बार फिर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर गहरे मतभेद उजागर हुए।

संयुक्त राष्ट्र महासचिव ने सीओपी-28 से ठोस समझौते पर पहुंचने का किया आग्रह

हालांकि इस बात की पूरी कोशिश रही कि शिखर सम्मेलन में इस मुद्दे पर दो सौ देशों के बीच सहमति बन जाए। संयुक्त राष्ट्र महासचिव अंतोनियो गुतारेस ने सीओपी-28 से जीवाश्म ईंधन को चरणबद्ध तरीके से समाप्त करने के लिए ठोस समझौते पर पहुंचने का आग्रह भी किया। मगर आज भी कुछ तेल उत्पादक देशों की ओर से जैसी आपत्तियां सामने आती हैं, उससे यही लगता है कि जलवायु संकट के अहम कारणों को दूर करने पर वैश्विक सहमति कायम करने का सफर लंबा है।

वायुमंडल में ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में जीवाश्म ईंधन को माना जाता है जिम्मेदार

गौरतलब है कि वायुमंडल में ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में जीवाश्म ईंधन को जिम्मेदार माना जाता है। इसी के मद्देनजर कार्बन उत्सर्जन रोकने के लिए किए जाने वाले उपायों पर जोर दिया जाता है। मुश्किल यह है कि इस क्रम में विकासशील देश अपनी सीमा में आमतौर पर कार्बन उत्सर्जन पर लगाम लगाने के लिए जितना बन पड़ता है, उतना करते हैं, मगर जिन विकसित देशों पर इसकी मुख्य जिम्मेदारी आती है, वे ऐन मौके पर कोई न कोई कारण बता कर अपनी जरूरी भूमिका से पीछे हट जाते हैं।

दरअसल, दुनिया भर में आज भी तेल, कोयला और प्राकृतिक गैस जैसे जीवाश्म ईंधनों पर बड़ी निर्भरता है। इसमें तेल की हिस्सेदारी चालीस फीसद और कोयला की इकतीस फीसद है। अंदाजा लगाया जा सकता है कि अगर अचानक जीवाश्म ईंधनों पर रोक लग जाएगी, तो खासकर तेल उत्पादक देशों की अर्थव्यवस्था में कैसी उथल-पुथल मचेगी।

यही वजह है कि रूस, अमेरिका और सऊदी अरब जैसे कुछ प्रमुख तेल उत्पादक देश जीवाश्म ईंधनों के उपयोग को अचानक खत्म करने की मांग का विरोध करते आए हैं। इस मामले में तेल, गैस और कोयले का दोहन रोकने के बजाय इन ईंधनों से उत्सर्जन को चरणबद्ध तरीके से कम करने का प्रस्ताव दिया जाता है। कुछ देशों की यह दलील समझी जा सकती है कि अचानक रोक से सिर्फ उन देशों का नुकसान होगा, जो अपनी अर्थव्यवस्था को टिकाए रखने या मजबूत करने के लिए जीवाश्म ईंधनों पर निर्भर हैं। बढ़ते तापमान और जलवायु संकट के लिए जिम्मेदार कार्बन उत्सर्जन पर काबू पाने के लिए सौर या पवन जैसे अक्षय ऊर्जा स्रोतों को विकल्प के रूप मे पेश किया जाता है, मगर दुनिया अभी उस स्थिति में नहीं पहुंची है कि वह बहुत कम समय में जीवाश्म ईंधनों का इस्तेमाल बंद करने को तैयार हो जाए।

ऐसे में ऊर्जा के मौजूदा विकल्पों की ओर से धीरे-धीरे ही स्वच्छ और अक्षय ऊर्जा की ओर बढ़ा जा सकेगा। अगर इस मसले पर लंबे वक्त से टालमटोल की प्रक्रिया यों ही जारी रही और कार्बन डाइआक्साइड उत्सर्जन को कम करने को लेकर विकसित देशों के बीच इसी तरह मतभेद कायम रहे, तो जलवायु संकट की चुनौतियां और गहरी ही होंगी।