पर्यावरण संरक्षण के मामले में अब तक अदालतें सरकारी महकमों को दिशा-निर्देश देती या इस काम में लापरवाही बरतने वाले पक्षों को फटकार लगाती रही हैं। पर एक नई पहल के तहत सर्वोच्च न्यायालय ने पेड़ बचाने के लिए जिस तरह कागजों के इस्तेमाल पर लगाम लगाने का फैसला किया है, वह स्वागतयोग्य है। किसी भी मुकदमे के फैसले की कागज पर दी जाने वाली प्रतियों की संख्या कम की जाएगी और बाद में जरूरत पड़ने पर वेबसाइट से डाउनलोड करके काम चलाया जाएगा। दूसरे, रोजाना के मामलों की जानकारी देने वाली ग्यारह तरह की वाद-सूची को भी आॅनलाइन कर दिया जाएगा। जो लोग अदालतों के कामकाज से परिचित हैं, वे जानते हैं कि सिर्फ इतने नियंत्रण से कितने बड़े पैमाने पर कागज की बचत की जा सकती है। लेकिन अदालत की कोशिश दरअसल कागज की बचत के बहाने पेड़ों का संरक्षण है।
गौरतलब है कि सर्वोच्च न्यायालय में हर साल औसतन साढ़े सात सौ फैसले सामने आते हैं और अमूमन हरेक निर्णय के लिए लगभग डेढ़ सौ कागज के पन्ने इस्तेमाल होते हैं। अगर अदालत की ताजा पहल पर ठीक से अमल हुआ तो केवल हर साल कागज के नब्बे लाख पन्नों की बचत होगी। इसी तरह, वाद सूची के लिए करीब चौंतीस हजार पन्ने रोजाना खर्च किए जाते हैं। अगर इसे पूरी तरह आॅनलाइन कर दिया जाता है तो बड़ी तादाद में कागज के खर्च पर काबू पाया जा सकेगा। लंबी कानूनी प्रक्रिया के दौरान मामलों के ब्योरे से लेकर शपथ-पत्र, गवाही, सबूत आदि तमाम गतिविधियों में बड़े पैमाने पर कागज का इस्तेमाल करना एक मजबूरी रही है। लेकिन सच यह है कि अदालती कामकाज में इस्तेमाल होने वाले कागज का बड़ा हिस्सा बेकार जाता है। एक आकलन के मुताबिक एक पेड़ से सामान्य आकार के लगभग साढ़े सात हजार पन्ने तैयार किए जाते हैं और ऐसा एक पन्ना बनाने में दस लीटर पानी खर्च होता है। जाहिर है, अदालत के फैसले के बाद इन दोनों उपायों से जितने पैमाने पर कागज के उपयोग में कमी आएगी, उससे हर साल करीब इक्कीस सौ पेड़ों के साथ-साथ करोड़ों लीटर पानी की बचत हो सकेगी। उम्मीद की जाती है कि सर्वोच्च न्यायालय की इस पहल से दूसरी अदालतें भी प्रेरणा लेंगी।
हालांकि मामला केवल अदालतों में कागज के बड़े पैमाने पर बर्बाद होने का नहीं है। विश्वविद्यालयों, शैक्षणिक संस्थानों, शोध प्रतिष्ठानों आदि में विद्यार्थियों को अपने शोध प्रबंध कई-कई प्रतियों में तैयार कराने पड़ते हैं। इसके अलावा, रोजमर्रा के कामकाज में जितने कागज का इस्तेमाल किया जाता है, अगर थोड़ी-सी जागरूकता पैदा की जाए तो उसमें भारी कमी की जा सकती है। इससे न केवल कागज और खर्चे में बचत होगी, बल्कि बड़ी संख्या में पेड़ बचाए जा सकेंगे। यूपीए सरकार के समय कुछ मंत्रालयों ने रद्दी कागज का दुबारा इस्तेमाल कर फाइलें, लिफाफे वगैरह बनाने की पहल शुरू हुई थी। वह पहल व्यापक स्तर पर चलनी चाहिए। आज जिस तरह विकास के नाम पर शहरों में अंधाधुंध पेड़ काटे जा रहे हैं, औद्योगिक कंपनियों के मुनाफे के लिए वनों को नष्ट किया जा रहा है, वैसे में सुप्रीम कोर्ट की ओर से कागज बचाने के जरिए पेड़ों के संरक्षण की इस पहल की अहमियत समझी जा सकती है। यह एक तरह से सरकार को आईना दिखाना है कि एक ओर वह पेड़ों के संरक्षण के लगातार दावे करती है, इनके लिए विशेष रूप से पर्यावरण एवं वन मंत्रालय काम करता है, लेकिन जमीनी स्तर पर वृक्षों के जीवन के सवाल हाशिये पर छोड़ दिए जाते हैं।
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