इन दिनों बजरंग दल और विश्व हिंदू परिषद जैसे संगठन कुछ अधिक सक्रिय और उग्र तेवर में नजर आ रहे हैं। इसलिए कि केंद्र में अब ऐसी सरकार है जिससे उन्हें अपनी तरफदारी का भरोसा है। अमदाबाद, भोपाल और दूसरे भी कई शहरों में इन संगठनों के कार्यकर्ताओं ने ‘पीके’ फिल्म पर पाबंदी लगाने की मांग को लेकर प्रदर्शन करने के साथ ही संबंधित सिनेमाघरों में तोड़-फोड़ की, सिनेमा के पोस्टर फाड़े, आग लगा देने की धमकियां दीं। मगर उनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की जा सकी है! इन संगठनों का आरोप है कि इस फिल्म में हिंदुओं के देवी-देवताओं का मजाक उड़ाया गया है। मगर यह बात किसी के गले नहीं उतर रही। इसका अंदाजा इससे भी लगाया जा सकता है कि दर्शकों में इसे लेकर चाव बना हुआ है। कुछ दिनों के भीतर ही इसने दो सौ करोड़ रुपए से अधिक की कमाई कर ली। असल में यह फिल्म भी मनोरंजन के मकसद से ही बनाई गई है, जैसे कि तमाम फिल्में बनती हैं। अलबत्ता इसमें धार्मिक पाखंडों पर व्यंग्य जरूर किया गया है, पर यह कटाक्ष किसी एक धर्म के ढोंग तक सीमित नहीं है। साहित्य और विभिन्न कलाओं में समाज की विसंगतियों, आडंबरों और संकीणताओं पर सवाल उठाने की लंबी परंपरा रही है। अध्यात्म की विभूतियों ने भी ऐसे सवाल उठाए हैं, कबीर जिसके सबसे बड़े पर्याय हैं।

फिल्म पीके की कहानी किसी अनजान ग्रह से शोध करने के मकसद से आए एक व्यक्ति की उलझनों, धार्मिक कर्मकांडों पर भरोसा करके ठगे जाने और फिर उससे उत्पन्न मोहभंग को लेकर बुनी गई है। इसमें अकेले हिंदू धर्म के नहीं, अन्य धर्मों के भी तथाकथित संतों, महात्माओं, पुजारियों, धर्मगुरुओं से उसकी मुलाकात होती है। सभी जगह उसे लोग कर्मकांडों के अर्थहीन और छलिया मोह से आविष्ट मिलते हैं। कहीं भी तर्क की गुंजाइश नहीं है। वह तर्क करता है तो खदेड़ा जाता है। जिनका साम्राज्य ईश्वर का भय दिखा कर आस्था को तर्क से परे रख खड़ा हुआ है, वे भला कब तर्क और वैज्ञानिक दृष्टिकोण का दखल बर्दाश्त करेंगे। फिल्म पर प्रतिबंध की मांग कर रहे संगठनों ने खासकर आमिर खान पर निशाना पर निशाना साधा है और इस तरह मामले को सांप्रदायिक रंग देने की कोशिश की है। जबकि यह फिल्म आमिर के दिमाग की उपज नहीं है, इसमें उनका काम महज एक अभिनेता का है। जिस फिल्म को सेंसर बोर्ड मंजूरी दे चुका हो, उस पर पाबंदी क्यों लगे?

इससे पहले भी कई फिल्में, किताबें, कलाकृतियां संकीर्ण सोच का निशाना बनी हैं। महान चित्रकार मकबूल फिदा हुसेन को तो आत्मनिर्वासन में रहने को मजबूर होना पड़ा था। वेंडी डोनिगर की किताब उनके प्रकाशक ने बाजार से वापस ले ली थी। एक ताजा वाकया तमिलनाडु का है, जहां हिंदुत्ववादी संगठनों ने चार साल पहले छपे एक तमिल उपन्यास की प्रतियां जलार्इं और उस पर पाबंदी की मांग की। लोकतंत्र का मतलब केवल यह नहीं होता कि चुनाव होते रहें और विभिन्न दलों को सत्ता की अपनी दावेदारी आजमाने का मौका मिलता रहे। लोकतंत्र का मतलब यह भी होता है कि अभिव्यक्ति की आजादी समेत सभी नागरिक अधिकार सुरक्षित रहें। क्या अब लेखकों, फिल्मकारों, कलाकारों, नाटककारों आदि को अपनी रचनाओं पर स्वयंभू ‘संस्कृति रक्षकों’ की संस्तुति लेनी पड़ेगी!

 

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