बंदी की सबसे गंभीर मार प्रवासी मजदूरों पर पड़ी है। उन्हें हर रोज नई मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है। हालांकि राज्य सरकारें उनके रहने-खाने का बंदोबस्त करने, मकान मालिकों की प्रताड़ना से बचाने, वित्तीय मदद मुहैया कराने और रोजगार के अवसर दुबारा उपलब्ध कराने का भरोसा तो दिला रही हैं, पर इन श्रमिकों का यकीन डोल चुका है। उनके सामने भविष्य की चिंता तो अलग, वर्तमान में भरण-पोषण का संकट सबसे अधिक मुंह बाए खड़ा है। ये ऐसे लोग हैं, जिन्हें अपना पेट भरने के लिए रोज कमाना पड़ता है। बंदी के बाद उनके रोजगार के ठिकाने भी बंद हो गए, सो परिवार के लिए भोजन जुटाना मुश्किल हो गया। जेब में पैसे बचे नहीं कि गुजारा कर सकें। सो, पहली बंदी के समय ही वे हजारों की तादाद में उन तमाम औद्योगिक इलाकों से अपने गांवों की तरफ पैदल कूच कर गए थे। मगर कोरोना संक्रमण का चक्र तोड़ने का संकल्प खतरे में पड़ता देख सरकारों ने जगह-जगह अवरोध बना कर इन मजदूरों को रोका और उन्हें वापस भेजा गया या शिविरों में रख दिया गया। उन्हें भोजन उपलब्ध कराने की व्यवस्था की गई। मगर इससे उनकी समस्या का हल निकलता नजर नहीं आता।
यही वजह है कि जैसे ही पहली बंदी की अवधि खत्म हुई और दूसरी बंदी की घोषणा हुई, मजदूरों के सब्र का बांध एक बार फिर टूट गया और उन्होंने वापस लौटने के प्रयास किए। मुंबई, ठाणे, सूरत, दिल्ली आदि शहरों में हजारों की संख्या में मजदूर सड़कों पर जमा हो गए। प्रशासन ने उन्हें वापस भेजने में फुर्ती दिखाई। मगर किसी तरह छिप-छिपा कर फिर भी वे भागने का प्रयास करते देखे गए। मेघालय में पच्चीस मजदूरों का एक जत्था पैदल ही चलता हुआ पैंसठ किलोमीटर से अधिक दूर निकल गया था, जब उसे प्रशासन ने वापस भेजा। इसी तरह हरियाणा के पलवल में एक ट्रक में छिप कर करीब बत्तीस मजदूर अपने गांव लौटने का प्रयास करते पकड़े गए। कुछ दिनों पहले यह भी देखने में आया था कि किस तरह कुछ एंबुलेंस लोगों को दिल्ली से बाहर पहुंचाने में जुटी थीं। ऐसी तरकीबें निकाल कर बहुत सारे मजदूर किसी तरह अपने गांव लौट जाना चाहते हैं। दरअसल, उनके सामने कोरोना के संक्रमण से अधिक भय भूखे मर जाने का है। जिस उम्मीद और सपनों के साथ वे शहरों में आए थे, वे सपने अब धुंधले हो चुके हैं। रोजगार के अवसर छिन गए हैं और फिर कब उन्हें कुछ कमाने-खाने का मौका मिल पाएगा, इसका भी कोई पक्का भरोसा नहीं है।
सरकारें प्रवासी मजदूरों को भोजन उपलब्ध कराने का दावा कर रही हैं, पर हकीकत यह है कि सभी को भर पेट तो दूर, एक वक्त का भोजन भी उपलब्ध नहीं हो पा रहा। शिविरों में रोज ही कई लोगों को बिना खाए गुजारा करना पड़ता है। भोजन की गुणवत्ता को लेकर भी शिकायतें मिल रही हैं। सूरत में करीब सौ मजदूर इसी बात से नाराज होकर सड़कों पर उतर आए कि उन्हें जो भोजन दिया जा रहा है, वह खाने लायक नहीं है। यह गरमी का मौसम है और भोजन जल्दी खराब हो जाता है, ऐसे में खराब भोजन खाने से उनकी सेहत पर पड़ने वाले दुष्प्रभाव का अंदाजा लगाया जा सकता है। सरकारें फिलहाल रोजगार का बंदोबस्त तो नहीं कर पा रहीं, पर मजदूरों के भोजन-पानी, रहने का समुचित प्रबंध भी कर सकें, तो उनकी तकलीफें कुछ कम हो जाएंगी।

