जनतंत्र की तस्वीर बेहतर बनानी हो, तो चुनाव सुधार सबसे बड़ा तकाजा है। यह मसला जब-तब उठता रहा है और विधि आयोग समेत कई समितियों ने समय-समय पर सुझाव भी दिए हैं। मगर इस बारे में सरकारों और राजनीतिक दलों के उपेक्षा-भरे रवैए के कारण बात आगे नहीं बढ़ पाई। एक बार फिर विधि आयोग ने अपनी 255वीं रिपोर्ट में चुनाव सुधार की सिफारिशें पेश की हैं। दिल्ली उच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश एपी शाह की अध्यक्षता वाले आयोग की इन सिफारिशों ने चुनावी पारदर्शिता की जिम्मेदारी सभी पर डालने का सुझाव दिया है, उम्मीदवारों और पार्टियों से लेकर बड़े दानदाताओं तक। अभी तक बीस हजार से कम की राशि का चंदा देने वाले का स्रोत बताना जरूरी नहीं है। इस नियम का फायदा उठा कर अधिकतर पार्टियां बड़ी रकम को बीस हजार से कम के टुकड़ों में बांट कर दर्ज करती हैं और इस तरह बहुत-से चंदे अनाम रह जाते हैं।
आयोग का कहना है कि अगर बीस हजार रुपए से कम के चंदों का कुल योग बीस करोड़ रुपए से अधिक हो, या कुल चंदे का बीस फीसद हो, तो उनका स्रोत बताना अनिवार्य किया जाए। कंपनियां किसी पार्टी को चंदा देने के लिए अपने सभी शेयरधारकों की राय लें, केवल बोर्ड के फैसले से ऐसा न करें। पार्टियां अपने आय-व्यय का समयबद्ध और आॅडिट किया हुआ हिसाब पेश करें, जो नियंत्रक एवं महा लेखा परीक्षक की जांच के लिए खुला हो। अगर समय से हिसाब नहीं दिया जाता है, तो पार्टियों पर भारी जुर्माना लगे, उन्हें कर-छूट से वंचित करने का विकल्प भी आजमाया जा सकता है। आयोग की एक सिफारिश यह भी है कि सदन का कार्यकाल पूरा होने के छह महीने पहले से सरकारी उपलब्धियों वाले विज्ञापन न दिए जाएं। अभी तक उम्मीदवारों को चुनाव खर्च का ब्योरा नामांकन के दिन से लेकर नतीजे की तारीख तक का देना होता है, जबकि चुनाव की घोषणा या उसके कुछ पहले से ही प्रचार अभियान शुरू हो जाता है। इसलिए आयोग ने सिफारिश की है कि चुनावी खर्च का आकलन चुनाव की अधिसूचना जारी करने के दिन से हो। आयोग ने अनिवार्य मतदान के विचार को खारिज कर दिया है। एक अन्य अहम सुझाव यह है कि किसी भी उम्मीदवार को एक ही सीट पर चुनाव लड़ने का अधिकार हो। ये सभी सुझाव चुनाव सुधार की दिशा में दूरगामी और सकारात्मक परिणाम लाने वाले हो सकते हैं। पर कुछ और भी कदम उठाने की जरूरत है। उम्मीदवारों पर अधिकतम व्यय की सीमा लागू है, पार्टियों के भी चुनावी खर्च की मर्यादा तय होनी चाहिए। यह सुझाव निर्वाचन आयोग दे चुका है। पार्टियों पर चुनावी खर्च की हदबंदी न होने से उम्मीदवारों पर लगी सीमा बेमतलब होकर रह गई है।
न्यायमूर्ति एपी शाह ने निर्वाचन आयोग को अधिक स्वायत्त बनाने की भी वकालत की है। विधि आयोग ने कहा है कि मुख्य आयुक्त समेत सभी निर्वाचन आयुक्तों की नियुक्ति राष्ट्रपति करें; नामों के चयन के लिए एक समिति बने, जिसमें प्रधानमंत्री के अलावा लोकसभा में विपक्ष के सबसे बड़े दल के नेता और सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश भी सदस्य के तौर पर शामिल हों। विधि आयोग चाहता है कि दल-बदल के मामले में सदस्यता खारिज करने का अधिकार पीठासीन अधिकारी को न हो, क्योंकि वह एक खास दल से संबद्ध रहा है। इसके बजाय सदस्यता खारिज करने का निर्णय निर्वाचन आयोग की सलाह पर विधानसभा के मामले में राज्यपाल और संसद के मामले में राष्ट्रपति करें। निर्दलीय उम्मीदवार को चुनाव लड़ने से रोकने का सुझाव बेतुका है, यह संविधान-प्रदत्त नागरिक अधिकार के ही खिलाफ है। इस सुझाव को छोड़ कर बाकी सिफारिशें स्वागत-योग्य हैं।
फेसबुक पेज को लाइक करने के लिए क्लिक करें- https://www.facebook.com/Jansatta
ट्विटर पेज पर फॉलो करने के लिए क्लिक करें- https://twitter.com/Jansatta