सत्तारूढ़ पार्टी के विधायक दल के नेतृत्व में बदलाव कोई नई बात नहीं है। कांग्रेस ने ऐसा बहुत बार किया है; भाजपा के रिकार्ड में भी इसके उदाहरण मिल जाएंगे। मगर जनता दल (एकी) के विधायक दल का अपना नेता बदलने का फैसला एक सियासी संकट का रूप ले चुका है, तो इसके खासकर दो कारण हैं। एक यह कि जीतन राम मांझी ने बगावत का झंडा उठा रखा है, अपनी पार्टी के अधिकतर विधायकों का समर्थन खो देने के बावजूद वे मुख्यमंत्री पद छोड़ने को तैयार नहीं हैं। दूसरी वजह आगामी विधानसभा चुनाव के मद््देनजर जद (एकी) के आंतरिक संकट को बढ़ाने में भाजपा की दिलचस्पी है। यह शायद भाजपा की तरफ से हुई हौसला-आफजाई का ही नतीजा है कि मांझी अब भी अपने साथ बहुमत होने और उसे बजट सत्र में साबित कर देने का दम भर रहे हैं। राज्य विधानसभा में बहुमत के लिए न्यूनतम एक सौ सत्रह विधायकों का समर्थन होना चाहिए।

भाजपा के सत्तासी विधायक हैं। यानी मांझी अगर कम से कम तीस विधायकों का समर्थन जुटा सकें तभी भाजपा उनकी कुर्सी बचा सकती है। लेकिन जद (एकी) के इतने विधायकों को तोड़ना तो दूर, शायद इसकी आधी संख्या भी मांझी के साथ नहीं है। इससे भाजपा की रणनीति गड़बड़ा गई है। फिर, दिल्ली विधानसभा चुनाव के नतीजों को देखते हुए वह अब संभल-संभल कर चलना चाहती है। इसका एक संकेत राज्यपाल के उस फैसले में भी दिखा, जब उन्होंने मंत्रिमंडल-विस्तार का मांझी का प्रस्ताव नामंजूर कर दिया। लेकिन इसी के साथ उन्हें मांझी को अविलंब बहुमत साबित करने के लिए कहना चाहिए था। वे असमंजस में क्यों हैं? क्या इसलिए कि उन्हें केंद्र के रुख के हिसाब से चलना है? राज्यपालों की नियुक्ति जिस तरह केंद्र में सत्तारूढ़ पार्टी के रुझान या पसंद के आधार पर होती रही है उसमें यही होना है। बिहार का राजनीतिक संकट बहुत कुछ राज्यपाल केशरीनाथ त्रिपाठी के अस्पष्ट रवैए की भी देन है। उत्तर प्रदेश विधानसभा के अध्यक्ष के तौर पर वे पहले भी विवादों को न्योता दे चुके हैं। उन्होंने अपने रुख को लेकर संदेह पैदा होने दिया। वरना नीतीश कुमार को दिल्ली जाकर राष्ट्रपति के सामने अपने समर्थक विधायकों की परेड कराने की जरूरत न पड़ती। नीतीश ने एक सौ तीस विधायकों के समर्थन का दावा किया है, जिनमें जद (एकी) के अलावा राष्ट्रीय जनता दल, कांग्रेस, भाकपा और एक निर्दलीय विधायक का भी समर्थन शामिल है।

स्थिति का तकाजा यह है कि मांझी अगर इस्तीफा नहीं देते हैं, तो उन्हें अपना बहुमत साबित करने को कहा जाए। वे इसमें नाकाम रहते हैं तो फिर नीतीश को अपना दावा सिद्ध करने का अवसर मिलना चाहिए। हालांकि पटना उच्च न्यायालय ने नीतीश के जद (एकी) विधायक दल का नेता चुने जाने के फैसले पर फिलहाल रोक लगा दी है, इस बिना पर कि यह व्यावहारिक रूप से नया मुख्यमंत्री चुनने जैसा है। लेकिन मांझी को बहुमत साबित करने का अवसर मिले और उनके विफल रहने पर नीतीश को न्योता दिया जाए, तो उच्च न्यायालय के एतराज का भी कोई आधार नहीं रहेगा और राजनीतिक या संवैधानिक संकट भी दूर हो जाएगा। कुछ दिनों से चल रहे गतिरोध ने राष्ट्रपति शासन की अटकलों को भी जन्म दिया है। पर सरकार बन सकती है तो राष्ट्रपति शासन का विकल्प हरगिज नहीं अपनाया जाना चाहिए। फिर, मौजूदा विधानसभा का कार्यकाल पूरा होने में अभी आठ महीने बाकी हैं। इसलिए उचित यही है कि जल्द से जल्द विधानसभा की बैठक बुलाई जाए, सदन में बहुमत के दावों का परीक्षण हो, और फिर उसी हिसाब से राज्यपाल नई व्यवस्था को मंजूरी दें।

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