राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत की मदर टेरेसा के बारे में की गई टिप्पणी पर स्वाभाविक ही देश भर में तीखी प्रतिक्रिया हुई है। मदर की स्थापित की हुई संस्था और ईसाई समुदाय के नुमांइदों के अलावा विपक्षी पार्टियों और आम नागरिकों ने भी भागवत के बयान को बेहद आपत्तिजनक माना है। सोमवार को राजस्थान के भरतपुर में हुए एक समारोह में भागवत ने कहा कि मदर टेरेसा की गरीबों की सेवा के पीछे उन्हें ईसाई धर्म में शामिल कराना होता था।
फिर भागवत ने यह भी कहा कि गरीबों की सेवा के पीछे एक नए प्रकार की साजिश सामने आ रही है। इससे समझा जा सकता है कि मदर के काम को वे क्या नाम देना चाहते होंगे। लेकिन उन्होंने अपने आरोप के पक्ष में एक भी प्रमाण नहीं दिया है। यह पहला मौका नहीं है जब संघ की तरफ से मदर टेरेसा की सेवा को संदिग्ध ठहराने वाला बयान आया हो।
संघ ने कई बार ऐसी बात तब भी कही थी जब मदर जीवित थीं। पर वे ऐसे आरोपों से बेपरवाह चुपचाप अपना काम करती रहीं। उन्होंने समाज के सबसे बेसहारा लोगों की सेवा में अपना जीवन अर्पित कर दिया था। इसके लिए उन्होंने मिशनरीज ऑफ चैरिटी की स्थापना की, जो वंचितों, विकलांगों, निराश्रितों के लिए देश में उम्मीद का सबसे बड़ा ठिकाना रहा है। करुणामूर्ति कही जाने वाली मदर टेरेसा ने मानवता की जो सेवा की, उसे अंतरराष्ट्रीय समुदाय ने भी निस्वार्थ भावना से किया गया महान कार्य माना और भारत ने भी। जहां उन्हें शांति के लिए दुनिया के सबसे बड़े पुरस्कार यानी नोबेल सम्मान से नवाजा गया, वहीं भारत ने उन्हें अपने सर्वोच्च नागरिक अलंकरण भारत रत्न से विभूषित किया।
क्या इतिहास को विकृत रूप में पेश करना संघ की फितरत है? तमाम वंचित और निराश्रित लोग, जिन्हें ‘चैरिटी’ की संस्थाओं में आश्रय मिला, अपने-अपने धर्म का पालन करते रहे। वहां आयोजित होने वाली सामूहिक प्रार्थनाओं में भी उन्हें अपनी-अपनी धार्मिक आस्था के हिसाब से प्रार्थना करने की आजादी रही है। आश्रय पाए हुए लोगों में जो दिवंगत हुए, उनके अंतिम संस्कार उनके अपने धार्मिक रिवाज के हिसाब से किए गए। ऐसी कोई शिकायत नहीं मिली कि किसी को आश्रय या सेवा-शुश्रूषा के बदले ईसाई धर्म स्वीकार करने को कहा गया हो, या सेवा में धार्मिक कोण से भेदभाव किया गया हो। मगर संघ प्रमुख को इन तथ्यों से कोई मतलब नहीं है। लगता है उनका इरादा किसी तरह धर्मांतरण का विवाद खड़ा करना और ईसाई समुदाय के प्रति समाज में संदेह पैदा करना है। मगर अनर्गल आरोप मढ़ कर वे खुद अपनी मंशा पर शक को न्योता दे रहे हैं।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पिछले दिनों ईसाई समुदाय के ही एक समारोह को संबोधित करते हुए धार्मिक असहिष्णुता की कड़ी निंदा की, और कहा कि सबको अपनी आस्था का पालन करने का अधिकार है, कोई भी धर्म चुनने का अधिकार है, अगर उसके पीछे जोर-जबरदस्ती या प्रलोभन न हो। लेकिन मोदी के इस बयान को एक हफ्ता भी नहीं बीता कि संघ प्रमुख अपनी टेक पर आ गए। इसके पहले भी उनके बेतुके बयान चौतरफा आलोचना का विषय बन चुके हैं। एक मौके पर उन्होंने कहा था कि हिंदुस्तान में रहने वाला हर कोई हिंदू है, जिस तरह अमेरिका में रहने वाला हर कोई अमेरिकी और जर्मनी में रहने वाला जर्मन। जबकि अमेरिकी या जर्मन विशेषण नागरिकता को सूचित करते हैं, धर्म या संप्रदाय को नहीं। पर जिसकी मंशा अपने प्रच्छन्न एजेंडे के आगे सच्चाई की बलि चढ़ानी हो, वह तथ्य और तर्क की परवाह क्यों करे!
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