मुख्य निर्वाचन आयुक्त एचएस ब्रह्मा का कहना है कि उम्मीदवारों की तरह चुनाव में राजनीतिक दलों के भी खर्च की सीमा तय होनी चाहिए। मंगलवार को आया उनका यह बयान स्वागत-योग्य है। अलबत्ता यह सुझाव नया नहीं है, लंबे समय से पार्टियों के चुनावी खर्च की हद तय करने की मांग उठती रही है। करीब डेढ़ दशक से इससे संबंधित प्रस्ताव सरकार के पास लंबित है। मगर इस दिशा में अब तक कुछ नहीं हो सका, तो इसकी मुख्य वजह यही है कि इसमें बड़ी पार्टियों की कोई दिलचस्पी नहीं रही है। दरअसल, चुनावी प्रतिद्वंद्विता में संसाधनों की घोर असमानता उन्हें रास आती है। पर यह हमारे लोकतंत्र के हित में नहीं है कि दलों के चुनावी खर्च पर कोई अंकुश न हो। प्रत्याशियों के खर्च की सीमा निर्धारित है। लेकिन पार्टियों के चुनावी व्यय की कोई सीमा न होने से प्रत्याशियों के खर्च की हदबंदी भी बेमतलब होकर रह जाती है। दलों को आम चुनाव संपन्न होने के तीन महीने के भीतर अपने खर्च का ब्योरा निर्वाचन आयोग को देना पड़ता है। पार्टियां इसमें कई बार लेटलतीफी और आनाकानी करती हैं। पर मान लें कि वे समय से यह ब्योरा दें, तो भी उससे क्या फर्क पड़ता है, जब उन पर खर्च की कोई बंदिश नहीं है?
अगर हम चाहते हैं कि चुनावी प्रक्रिया पारदर्शी बने तो उसके लिए पार्टियों के चुनावी व्यय की सीमा तय करना निहायत जरूरी है। हमारी चुनाव प्रणाली काफी हद तक ब्रिटेन से प्रेरित है। पर चुनाव खर्च के मामले में ब्रिटेन के एक प्रशंसनीय प्रावधान को हमने नहीं अपनाया है। वहां उम्मीदवारों के साथ-साथ पार्टियों के लिए भी प्रचार-व्यय की सीमा निर्धारित है। यह सीमा प्रति निर्वाचन क्षेत्र के आधार पर भी है और पार्टी के कुल प्रचार-खर्च के लिहाज से भी। वक्त आ गया है कि हमारे देश में भी इस तरह का प्रावधान हो। चुनाव-दर-चुनाव दलों का प्रचार-खर्च बढ़ता गया है। पिछले दो-तीन चुनावों से इसमें गजब की तेजी आई है और अब वह चौंधियाने की हद तक पहुंच गया है। थोड़े ही दिनों में एक पार्टी कई हजार करोड़ रुपए फूंक देती है। जाहिर है, छोटे या कम संसाधन वाले दलों को यह मुकाबला भारी पड़ता है। नागरिकों के लिहाज से देखें तो पैसे का यह वर्चस्व आम लोगों के राजनीतिक सशक्तीकरण को बाधित करता है। यही नहीं, इससे चुनाव में काले धन का इस्तेमाल बढ़ता है। इसलिए हैरत की बात नहीं कि राजनीति और चुनाव दिनोंदिन और दूषित होते गए हैं। यही नहीं, दलों के लिए असीमित प्रचार-खर्च की छूट रहने का बुरा असर नीतियों के निर्धारण और सरकार के वित्तीय फैसलों पर भी पड़ता है।
खर्च की होड़ दलों और राजनीतिकों को बड़े व्यावसायिक घरानों और धनी तबके की मदद का मोहताज बनाती है। फिर चुनाव के बाद इसकी कीमत चुकाई जाती है। इसलिए हैरत की बात नहीं कि चुनाव में भले आम लोगों की समस्याओं की चर्चा होती हो और गरीबों के प्रति हमदर्दी जताने की होड़ दिखती हो, चुनाव खत्म होने के बाद प्राथमिकताएं बदल जाती हैं। लिहाजा, चुनावी प्रक्रिया को पारदर्शी बनाने, नागरिकों के राजनीतिक सशक्तीकरण की प्रक्रिया को आगे बढ़ाने और नीति-निर्धारण को अवांछित दबावों से मुक्त रखने के लिए यह जरूरी है कि पार्टियों के भी चुनावी खर्च की सीमा तय हो। भाजपा भ्रष्टाचार और काले धन से निजात दिलाने के वादे पर केंद्र की सत्ता में आई है। इसलिए मुख्य निर्वाचन आयुक्त के सुझाव के अनुरूप प्रधानमंत्री को चाहिए कि वे पार्टियों के चुनाव-खर्च की सीमा बांधने के लिए जनप्रतिनिधित्व कानून में अपेक्षित संशोधन की पहल करें।
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