दिल्ली में सोलह दिसंबर, 2012 को एक मेडिकल छात्रा से चलती बस में हुई बलात्कार और हत्या की बर्बर घटना पर बने एक वृत्तचित्र ‘इंडियाज डॉटर’ को लेकर केंद्र सरकार की जैसी प्रतिक्रिया सामने आई, वह बेहद निराशाजनक है। संसदीय कार्यमंत्री वेंकैया नायडू ने वृत्तचित्र को भारत को बदनाम करने की साजिश कहा तो भाजपा की सांसद मीनाक्षी लेखी ने इसे देश की प्रतिष्ठा को आघात पहुंचाने वाला बताया। महिलाओं के खिलाफ तमाम आपराधिक घटनाओं में बढ़ोतरी पर हमारे नुमाइंदे शायद ही कभी इतने विचलित होते हों, लेकिन एक त्रासद घटना पर बने वृत्तचित्र को देश और समाज के लिए नुकसानदेह करार देने के लिए उन्होंने आसमान सिर पर उठा लिया।
इस सबके बरक्स राज्यसभा सांसद जावेद अख्तर ने ठीक सवाल उठाया कि क्या यह सच नहीं है कि निर्भया मामले में एक सजायाफ्ता की जिस बात पर आपत्ति जाहिर करते हुए इस वृत्तचित्र पर पाबंदी की मांग की जा रही है, उस तरह की बातें हम और कई लोगों के मुंह से सुनते रहे हैं, संसद तक में सुन चुके हैं। स्त्रियों के प्रति मानसिकता के सवाल को उसके पूरे परिप्रेक्ष्य में क्यों नहीं देखा जाता? फिर, वृत्तचित्र एक अपराधी के बयान से उसकी आपराधिक मानसिक बनावट को सामने लाता है, तो इसे संबंधित अपराध को महिमामंडित करने वाला कैसे कहा जा सकता है?
कई लोगों ने मुजरिम के साक्षात्कार के लिए ली गई इजाजत की प्रक्रिया पर सवाल उठाए हैं। मगर फिल्म निर्माता की मानें तो इसके लिए उनकी टीम को न सिर्फ जेल अधिकारियों, बल्कि गृह मंत्रालय ने भी बाकायदा इजाजत दी थी। यों भी, इतने चर्चित अपराध के सजायाफ्ता से देश की सबसे सुरक्षित मानी जाने वाली जेल में साक्षात्कार लेना क्या अनिवार्य प्रक्रिया को पूरी किए बिना संभव है?
विचित्र है कि एक तरफ हम अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की दुहाई देते हैं, वहीं ऐसे दस्तावेज को रोकने की मांग करते हैं जो सच्चाई पर आधारित हो। सवाल है कि लोगों की समझ को हम इतना कम करके क्यों आंकते हैं कि वे किसी रचना के संदेश को समझ नहीं पाएंगे। वृत्तचित्र में अपराधी ने जो कहा, लोग उसे किस रूप में देखेंगे, वह सोलह दिसंबर, 2012 की घटना के बाद देश भर में पैदा हुए आक्रोश और आंदोलन से सामने आ चुका है। इससे मिलते-जुलते बयान देने वाले राजनीतिकों या कुछ बाबाओं के खिलाफ जनसामान्य के बीच जैसी प्रतिक्रियाएं देखने में आर्इं, वह भी जगजाहिर है।
फिर क्या वजह है कि सरकार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को नजरअंदाज कर खुद इस वृत्तचित्र पर रोक लगाने को उतावली हो गई? क्या उसका ऐसा रुख इसलिए भी सामने आया कि कुछ रसूख वाले लोग भी जब-तब स्त्री-विरोधी बयान देते रहे हैं? भाजपा के निहालचंद मेघवाल तो बलात्कार के आरोपी होने के बावजूद केंद्र में मंत्री बने हुए हैं। समाज को संवेदनशील बनाने के लिए कुछ ठोस पहल की जरूरत है।
बलात्कार की एक घटना पर बने वृत्तचित्र के जरिए उठने वाले सवालों और बहस के बहाने समाज में मौजूद स्त्री-विरोधी मानसिकता को समझने की कोशिश की जा सकती है और उससे निपटने के ठोस सामाजिक कार्यक्रम बनाए जा सकते हैं। इसके बजाय सरकार और हमारे कुछ राजनीतिकों ने इन सवालों से जूझने वाले एक वृत्तचित्र के खिलाफ जिस तरह मोर्चा खोल दिया, वह न सिर्फ उनकी अगंभीरता को दर्शाता है, बल्कि इससे दुनिया भर में देश की लोकतांत्रिक छवि को भी नुकसान पहुंचा है।
फेसबुक पेज को लाइक करने के लिए क्लिक करें- https://www.facebook.com/Jansatta
ट्विटर पेज पर फॉलो करने के लिए क्लिक करें- https://twitter.com/Jansatta