भारतीय जनता पार्टी के केंद्र की सत्ता में आने के साथ अकादमिक संस्थाओं में मनमानी नियुक्तियां होने, शिक्षा और अनुसंधान आदि के भगवाकरण की जो आशंका जताई जा रही थी, वह अब सही साबित हो रही है। इसका शायद सबसे खास उदाहरण आइसीएचआर यानी भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद है। परिषद के अध्यक्ष पद पर पिछले साल वाइ सुदर्शन राव की नियुक्ति की गई थी, जिनका नाम इतिहासकारों के लिए भले अनजान रहा हो, पर संघ परिवार से उनका गहरा जुड़ाव रहा है। अब खबर है कि परिषद के सदस्यों के तौर पर भी संघ के पसंदीदा लोगों को जगह दी गई है। पिछले हफ्ते अठारह नए सदस्यों को शामिल कर आइसीएचआर का पुनर्गठन किया गया। इन नए सदस्यों में कई ऐसे लोग भी शामिल हैं, जो संघ की संस्था ‘अखिल भारतीय इतिहास संकलन योजना’ के पदाधिकारी रह चुके हैं। सदस्यों का कार्यकाल तीन साल का होता है। नियमानुसार लगातार दो से अधिक कार्यकाल किसी को नहीं दिया जा सकता। मगर लंबे समय से यह परंपरा रही कि जिन सदस्यों का केवल एक कार्यकाल पूरा हुआ हो, उन्हें मानव संसाधन विकास मंत्रालय अपनी जगह बने रहने का अनुरोध करता था।

इस बार मंत्रालय ने परिपाटी का पालन क्यों नहीं किया, इसका अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं। नई नियुक्तियों से जाहिर है कि मंत्रालय मौके की ताक में था कि जल्दी से जल्दी वहां ऐसे लोग बिठाए जाएं, जो वाइ सुदर्शन राव के साथ शुरू हुए सिलसिले को आगे बढ़ा सकें। आइसीएचआर जरूर मंत्रालय के मातहत है, पर मार्च 1972 में इसकी स्थापना इतिहास लेखन और अनुसंधान के क्षेत्र में मानक स्थापित करने के लिए एक स्वायत्त संस्था के रूप में की गई थी। पिछले साल अध्यक्ष पद पर और अब नए सदस्यों के रूप में जैसी नियुक्तियां हुई हैं, उनसे इसकी स्वायत्तता बुरी तरह आहत हुई है। साथ ही यह मामला अकादमिक विचलन का भी है। नए निजाम में भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद किस तरह के सोच और शोध को बढ़ावा देगी यह खुद अध्यक्ष की एक टिप्पणी से समझा जा सकता है। राव ने अपने ब्लॉग पर लिखी एक टिप्पणी में कहा है कि जाति-व्यवस्था प्राचीन काल में बहुत अच्छे से चल रही थी और हमें किसी कोने से उसकी शिकायत नहीं मिलती; इस प्रथा को शोषणकारी व्यवस्था मान लेने की गलती की जाती है। सवाल है कि जातिप्रथा को महिमामंडित करने वाले इतिहास संबंधी शोध को कैसी दिशा देंगे? यह पहली बार नहीं है जब परिषद की परंपरा और स्वरूप के साथ ऐसा खिलवाड़ हुआ हो।

पिछली राजग सरकार के समय भी परिषद का इसी तरह का पुनर्गठन हुआ था। तत्कालीन मानव संसाधन विकास मंत्री मुरली मनोहर जोशी ने परिषद में दो ऐसे सदस्यों का चयन किया था, जो विश्व पुरातत्त्व कांग्रेस की निंदा का भाजन बने थे। तब के विवाद से कोई सबक लेने के बजाय मंत्रालय ने उसी गलती को और विकट रूप से दोहराया है। अब यह डर निराधार नहीं है कि इतिहास को हिंदुत्व के पूर्वग्रह से देखने वाली शोध-परियोजनाओं को बढ़ावा दिया जाएगा और इस क्रम में तथ्यों की भी बलि चढ़ाई जा सकती है। दीनानाथ बतरा भी संघ के शिक्षा बचाओ आंदोलन से जुड़े रहे हैं, जो स्टेम सेल जैसी आधुनिक वैज्ञानिक खोज को भारत के प्राचीन काल में हुई मानते हैं। बतरा अब शिक्षा के क्षेत्र में हरियाणा सरकार के मार्गदर्शक हैं। उन्हीं के समान सोच वाले लोग आइसीएचआर पर काबिज हो गए हैं। कहने की जरूरत नहीं कि मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने अकादमिक विश्वसनीयता के क्षरण का जो रास्ता साफ किया है उसका सबसे ज्यादा खमियाजा नई और भावी पीढ़ी के विद्यार्थियों और शोधार्थियों को भुगतना होगा।

 

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