आखिरकार पाकिस्तान को सार्क के अगले सम्मेलन को स्थगित करने की घोषणा करनी पड़ी। इसके सिवा कोई चारा भी नहीं रह गया था। सम्मेलन स्थल इस्लामाबाद होने के कारण पाकिस्तान मेजबान था। पर यह मेजबानी ही सम्मेलन की सबसे बड़ी बाधा बन गई। उड़ी में हुए आतंकी हमले के बाद पाकिस्तान को लगातार घेरने की कोशिश में भारत ने जहां कई और कूटनीतिक कदम उठाए, वहीं सार्क के इस्लामाबाद सम्मेलन से अलग रहने का फैसला भी सुना दिया, यह कहते हुए कि परस्पर सहयोग बढ़ाने की बातचीत आतंक-मुक्त माहौल में ही हो सकती है। यों अकेले भारत का बहिष्कार ही सम्मेलन पर सवालिया निशान लगाने के लिए काफी था, क्योंकि सार्क में सर्वसम्मति से निर्णय लेने की परिपाटी रही है। पर भारत के सुर में सुर मिलाते हुए भूटान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश ने भी सम्मेलन में हिस्सेदारी करने में असमर्थता जता दी।
बाद में श्रीलंका ने भी सम्मेलन में हिस्सा न लेने का एलान कर दिया। यह सब पाकिस्तान के लिए तो झटका है ही, सार्क के लिए भी झटका है। लिहाजा सार्क का भविष्य क्या होगा, इस पर अटकलें लगाई जाने लगी हैं। यों यह पहला मौका नहीं है जब सार्क का शिखर सम्मेलन स्थगित हुआ हो। इससे पहले भी सम्मेलन टले हैं। पाकिस्तान ने कहा है कि वह सार्क के अध्यक्ष यानी नेपाल से बात करके सम्मेलन की अगली तारीखों की घोषणा करेगा। लेकिन उन तारीखों पर भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस्लामाबाद जाने को तैयार नहीं हुए तो? खैर, आगे जो हो, भारत और पाकिस्तान की आपसी तनातनी सार्क की सबसे बड़ी समस्या रही है; पहले भी कई सम्मेलनों पर इसका असर पड़ा है। सार्क की यह समस्या अब एक संकट का रूप लेती दिख रही है। अगर भारत इससे बहुत चिंतित नहीं दिख रहा, तो पाकिस्तान पर दबाव बढ़ाने की उसकी मौजूदा रणनीति के अलावा कुछ और भी वजहें हो सकती हैं।
सार्क के बहुत सारे फैसले मूर्त रूप नहीं ले पाए हैं। मसलन, सार्क का दक्षिण एशिया मुक्त व्यापार समझौता यानी साफ्टा 2004 में ही हो गया था, पर सार्क के भीतर आपसी व्यापार अब भी इन देशों के जीडीपी के एक फीसद से ज्यादा नहीं है। दूसरी ओर, भारत ने भूटान, नेपाल और श्रीलंका के साथ अलग से मुक्त व्यापार समझौते कर रखे हैं। फिर, ये तीनों देश और बांग्लादेश एक अन्य क्षेत्रीय समूह ‘बिम्सटेक’ में भी हैं। बिम्सटेक में इनके अलावा भारत भी है और म्यांमा तथा थाईलैंड भी।
लिहाजा, भारत को लग रहा होगा कि बिम्सटेक और आसियान के जरिए तथा द्विपक्षीय समझौतों के सहारे, सार्क के बिना भी क्षेत्रीय सहयोग के तकाजे को आगे बढ़ाया जा सकता है। बिम्सटेक दक्षिण एशिया और दक्षिण पूर्व एशिया के बीच पुल का काम भी कर सकता है। लेकिन सार्क को इतिहास की चीज बना देने के लिए क्या बाकी सदस्य देश भी राजी होंगे? विडंबना यह है कि जनवरी 2004 में इस्लामाबाद में हुआ शिखर सम्मेलन ही आतंकवाद के खिलाफ सार्क की सबसे बड़ी पहलकदमी बना था, जब पाकिस्तान समेत सभी सदस्य देशों ने दो टूक घोषणा की थी कि वे आतंकवाद के खिलाफ अपनी जमीन का इस्तेमाल नहीं होने देंगे, और आज आतंकवाद के कारण ही सार्क का सम्मेलन इस्लामाबाद में नहीं हो पा रहा है। अगर पिछले बारह बरसों में पाकिस्तान ने अपनी वचनबद्धता और सार्क के घोषणापत्र का पालन किया होता, तो यह नौबत न आती।