देश के किसी भी राज्य में चुनी हुई सरकार का गठन एक आम लोकतांत्रिक प्रक्रिया का हिस्सा है, लेकिन जम्मू-कश्मीर में बुधवार को नई सरकार के मुख्यमंत्री के रूप में उमर फारूक का शपथ लेना खास अहमियत रखता है। जम्मू-कश्मीर में लंबे समय से आतंकवाद और राजनीतिक अस्थिरता का दौर हावी रहा है और बीते कई वर्षों से विधानसभा चुनाव नहीं होने को एक तरह से लोकतंत्र की सहजता में बाधक माना जा रहा था। खासतौर पर वहां अनुच्छेद 370 हटने के बाद राजनीतिक रूप से कई स्तर पर खड़ी होने वाली बाधाओं और आशंकाओं के मद्देनजर चुनाव कराना एक मुश्किल चुनौती थी।

इसके बाद वहां जिस तरह नैशनल कांफ्रेंस और उसके सहयोगी दलों को कामयाबी मिली, उससे जम्मू-कश्मीर की जनता के रुख का पता चलता है। इसलिए वहां अब अगर नैशनल कांफ्रेंस के नेता उमर फारूक ने बतौर मुख्यमंत्री शपथ ली है, तो उनके सामने मुख्य चुनौती यही होगी कि उनके नेतृत्व वाली सरकार वहां की जनता की अपेक्षाओं को पूरा करने के लिए कितना और क्या कर पाती है।

गौरतलब है कि जम्मू-कश्मीर में इस बार विधानसभा चुनावों के दौरान देश की लोकतांत्रिक प्रक्रिया के अमूमन सभी सकारात्मक पहलुओं की मौजूदगी रही। उम्मीद के मुकाबले बहुत ज्यादा लोगों ने घरों से निकल कर वोट डाला और एक तरह से उन्होंने यह साफ कर दिया कि जम्मू-कश्मीर के बारे में भले ही कुछ मामलों को आधार बना कर नकारात्मक धारणाओं का प्रचार किया जाता हो, लेकिन वहां के आम लोग दरअसल देश की लोकतांत्रिक प्रक्रिया में भागीदारी करते हुए सहज रहते है और उत्साह से इसमें हिस्सा लेते हैं।

लोगों ने किया था बढ़चढ़ कर मतदान

करीब दस वर्ष बाद हुए चुनावों में भारी पैमाने पर लोगों ने बढ़-चढ़ कर मतदान किया और इसका ऊंचा स्तर जम्मू-कश्मीर में राजनीतिक लिहाज से काफी बेहतर और संतोषजनक रहा। सच यह है कि वहां के साधारण लोगों ने इस बार अलगाववादी तत्त्वों की ओर से खड़ी चुनौतियों और तमाम जोखिम के बीच देश के लोकतंत्र को चुना और उसी मुताबिक उन्होंने अपने और जम्मू-कश्मीर के भविष्य को एक नई राह दी है। इसके बाद वहां बह रही नई बयार में लोगों की यह स्वाभाविक अपेक्षा होगी कि सरकार अपने उन वादों को लेकर गंभीरता और इच्छाशक्ति का प्रदर्शन करे, जिसके आधार पर वह चुन कर सत्ता में आई है।

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हालांकि जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 खत्म होने और उसके केंद्रशासित प्रदेश होने की वजह से नई विधानसभा और मुख्यमंत्री के पास देश के अन्य राज्यों की तरह शक्तियां नहीं हैं, इसलिए उपराज्यपाल के साथ अधिकार संबंधी विवाद या टकराव की आशंका खड़ी हो सकती है। इस लिहाज से देखें तो स्वाभाविक ही जम्मू-कश्मीर को राज्य का दर्जा दिलाने का सवाल कई राजनीतिक दलों के लिए प्राथमिकता सूची में शायद सबसे ऊपर होगा। वहां कई राजनीतिक दल और उनके नेता राज्य का दर्जा दिलाने के मसले पर स्पष्ट देखे गए हैं।

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अब वहां एक चुनी हुई सरकार काम करेगी और इस बात की संभावना है कि आने वाले समय में जम्मू-कश्मीर को राज्य का दर्जा दिलाने के प्रयास रफ्तार पकड़े। इसके अलावा, हाल के वर्षों में वहां आतंकवादी घटनाओं में जिस तरह की तेजी आई है, सुरक्षा बलों, प्रवासी मजदूरों के साथ-साथ स्थानीय लोगों के खिलाफ भी लक्षित आतंकी हमलों में इजाफा हुआ है, उस पर काबू पाने को लेकर केंद्रशासित प्रदेश में परिभाषित अधिकारों की स्थिति में नई सरकार किस रणनीति पर काम करती है, यह देखने की बात होगी।