आतंकवाद किसी भी देश की तरक्की में बहुत बड़ी बाधा है। इससे पार पाने के लिए कड़े कदम और व्यावहारिक रणनीति की जरूरत होती है। मगर तमाम दावों और सख्ती के बावजूद अगर जम्मू-कश्मीर में आतंकवाद की जड़ें पूरी तरह नष्ट नहीं हो पा रहीं, तो इसके पीछे व्यवस्थागत कमजोरियां ही बड़ी वजह हैं। पिछले दस वर्षों से घाटी में आतंकवाद को खत्म करने के दावे किए जा रहे हैं। इसके लिए सुरक्षाबलों को चौकस किया गया है, सीमा पार से होने वाली घुसपैठ पर लगाम कसी गई है, राज्य का विशेष दर्जा खत्म कर दिया गया। मगर वहां आतंकी घटनाओं में पहले की तुलना में कोई उल्लेखनीय कमी दर्ज नहीं हो पा रही।

थोड़े-थोड़े दिनों पर दहशतगर्द घात लगा कर सुरक्षाबलों के काफिले पर हमला कर देते हैं। इस तरह पिछले दस वर्षों में सैकड़ों जवान, फौजी अफसर और आम नागरिक मारे जा चुके हैं। जम्मू के डोडा में तलाशी अभियान के दौरान एक फौजी अफसर की शहादत उसी की एक कड़ी है। बताया जा रहा है कि वहां तलाशी अभियान के दौरान आतंकियों से सुरक्षाबलों की मुठभेड़ हुई और गोली लगने से सैन्य टुकड़ी की अगुआई कर रहा अफसर शहीद हो गया। पिछले महीने भी डोडा में तलाशी अभियान के दौरान मुठभेड़ में चार जवान और एक सैन्य अधिकारी शहीद हो गए थे।

आतंकियों ने रणनीति बदलकर सुरक्षाबलों का भटकाया ध्यान

जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा खत्म करने के बाद दावा किया गया था कि वहां आतंकवाद पूरी तरह समाप्त हो जाएगा। बीच-बीच में आंकड़े भी दिए जाते रहे कि अब घाटी में आतंकी गतिविधियां काफी कम हो गई हैं और आतंकी कुछ इलाकों तक सिमट कर रह गए हैं। मगर हकीकत यह है कि शायद ही कोई महीना गुजरता है, जब आतंकी घात लगा कर हमला नहीं करते। वे थोड़े-थोड़े समय पर अपनी रणनीति बदलते और सुरक्षाबलों का ध्यान भटकाने का प्रयास भी करते रहते हैं।

शांति वाले इलाके में भी शुरू हो गई आतंकी घटनाएं

अब उन इलाकों में भी दहशतगर्दों की मौजूदगी दर्ज होने लगी है, जहां पहले प्राय: शांति हुआ करती थी। सरकार का दावा है कि आतंकियों को वित्तीय मदद पहुंचाने वालों पर शिकंजा कसा जा चुका है। सड़क के रास्ते पाकिस्तान से होने वाली तिजारत पहले ही रोक दी गई थी, जिससे सीमा पार से आने वाले हथियारों और गोला-बारूद की आपूर्ति पर रोक लगने का दावा किया जाता है। सीमा पार से घुसपैठ की कोशिशें भी काफी हद तक नाकाम कर दी जाती हैं। फिर भी घाटी में दहशतगर्दों के पास साजो-सामान और वित्तीय मदद पहुंच जा रही है और वे लगातार सक्रिय हैं, तो इसकी क्या वजहें हैं, जानने का प्रयास होना ही चाहिए।

दहशतगर्दी पर लगाम लगाने के लिए स्थानीय लोगों का भरोसा जीतना जरूरी उपाय माना जाता रहा है। मगर वास्तविकता यह है कि स्थानीय लोगों में पिछले वर्षों में नाराजगी बढ़ी है। स्थानीय युवा हथियार उठाने लगे हैं। इस तरह बाहर के प्रशिक्षित आतंकियों के बजाय स्थानीय स्तर पर ही दहशतगर्द तैयार होते देखे जा रहे हैं। स्थानीय लोगों से सरकार का संवाद नहीं बन पा रहा। वहां लोकतांत्रिक प्रक्रिया लंबे समय से स्थगित है। लोकसभा के चुनाव तो करा लिए गए, मगर विधानसभा के चुनाव कब होंगे, अब तक घोषणा नहीं हुई है। वहां लोकतांत्रिक प्रक्रिया बहाल हो, तो स्थानीय लोगों का भरोसा जीतने में कुछ मदद मिलेगी। मगर यह तभी संभव होगा, जब सरकार अपने राजनीतिक नफे-नुकसान के गणित से ऊपर उठ कर प्रयास करे।