उत्तराखंड में त्रिवेंद्र सिंह रावत को हटा कर तीरथ सिंह रावत को मुख्यमंत्री बनाने के बाद अब वहां भाजपा विधायकों का असंतोष कुछ शांत हो गया है। पार्टी ने भी राहत की सांस ली है। मगर इसके बाद भी वहां सब कुछ ठीकठाक रहने वाला है, दावा नहीं किया जा सकता। उत्तराखंड में भाजपा विधायक त्रिवेंद्र सिंह रावत के व्यवहार और कामकाज के तरीके से खासे नाराज थे। उन्होंने पार्टी की केंद्रीय कमान से उन्हें हटाने की गुहार लगाई थी।
उनका कहना था कि त्रिवेंद्र रावत के रहते अगले विधानसभा चुनावों में पार्टी का जीतना असंभव होगा। हालांकि असंतुष्ट विधायकों को मनाने का खासा प्रयास किया गया, मगर विधायकों ने स्पष्ट कर दिया कि वे त्रिवेंद्र रावत से खुश नहीं हैं और उनका रहना पार्टी के लिए भी खतरा साबित हो सकता है। आखिरकार त्रिवेंद्र रावत को पद छोड़ने को कह दिया गया और उनकी जगह कई वरिष्ठ नेताओं को नजरअंदाज करते हुए पौड़ी से सांसद तीरथ सिंह रावत को जिम्मेदारी सौंप दी गई। उन्होंने शपथ ग्रहण के बाद केंद्रीय कमान की अपेक्षाओं पर खरा उतरने का विश्वास भी दिलाया है।
यह अच्छी बात है कि भाजपा की केंद्रीय कमान ने उत्तराखंड में विधायकों के असंतोष को मान-मनौवल के जरिए लंबे समय तक खींचने के बजाय, तत्काल नेतृत्व परिवर्तन का निर्णय किया। अक्सर ऐसी स्थितियों में राजनीतिक पार्टियां मुख्यमंत्री के पक्ष में खड़ी नजर आने लगती हैं। विधायकों के साथ उनकी रस्साकशी चलती रहती है। इससे बेवजह विपक्षी दलों को अपनी सियासी रोटियां सेंकने का मौका मिलता है। उत्तराखंड में भाजपा ने ऐसा नहीं होने दिया। दरअसल, न सिर्फ त्रिवेंद्र सिंह रावत का काम करने का तरीका लोगों को खटक रहा था, बल्कि उन्होंने उत्तराखंड में लोगों की अपेक्षाओं पर खरे उतरने का प्रयास भी नहीं किया।
मुख्यमंत्री पद संभालने के साथ ही जिस तरह लोगों की समस्याएं सुनते हुए उन्होंने एक महिला अध्यापक के साथ बड़े कठोर ढंग से बर्ताव किया था, तभी से उनके तरीके पर अंगुलियां उठनी शुरू हो गई थीं। पर हैरानी है कि चार सालों तक वे उसी रंग-ढंग में काम करते रहे। स्वाभाविक ही, जब उनका व्यवहार अधिसंख्य विधायकों की बर्दाश्त से बाहर हो गया, तभी उन्होंने विद्रोह का स्वर बुलंद किया होगा। पार्टी के केंद्रीय कमान ने उनकी भावनाओं और फैसले का सम्मान किया, इससे निस्संदेह उनका कुछ मनोबल बढ़ा होगा।
मगर फिर भी कुछ सवाल बने हुए हैं। लोकतंत्र में तरीका तो यह है कि बहुमत प्राप्त पार्टी के विधायक अपने नेता के रूप में मुख्यमंत्री का चुनाव करेंगे। मगर होता यह है कि केंद्रीय कमान जिसे चाहता है, उसे अपने समीकरण के हिसाब से मुख्यमंत्री पद पर बिठा देता है। उसके चलते अक्सर असंतोष पैदा होता है, बेशक वह कई बार प्रत्यक्ष दिखाई न दे। यह बात केवल भाजपा पर लागू नहीं होती, तमाम राजनीतिक दल इसी परिपाटी पर चलते दीखते हैं।
मध्यप्रदेश और राजस्थान में नेतृत्व को लेकर कांग्रेस की रस्साकशी भी इसका उदाहरण है। कुछ जगहों पर भले कुछ विधायक और मंत्री अपने राजनीतिक भविष्य के भय से विरोध करने से बचते हैं, पर भीतर-भीतर इस कोशिश में जरूर लगे देखे जाते हैं कि किस तरह नेतृत्व को अस्थिर किया जाए। जाहिर है, इससे सरकार के कामकाज पर असर पड़ता है, उसे असंतुष्टों के खिलाफ अक्सर कठोर रुख अपनाते देखा जाता है। इसका सीधा असर कानून-व्यवस्था और विकास कार्यक्रमों और आखिरकार प्रदेश के आम लोगों के जीवन पर पड़ता है। इसके असर से पार्टी भी नहीं बच पाती। अगर राजनीतिक दल इस तकाजे को समझें, तो शायद बीच में नेतृत्व बदलने की नौबत ही न आए।