सत्तारूढ़ कांग्रेस ने शानदार जीत हासिल की है। आठ नगर निगमों और एक सौ नौ में से सतासी नगर परिषदों पर उसे विजय मिली है। शिरोमणि अकाली दल को खासा झटका लगा है। आम आदमी पार्टी तीसरे और भाजपा चौथे स्थान पर पहुंच गई हैं। कई लोग इसे भाजपा के प्रति लोगों की नाराजगी के रूप में देख रहे हैं, क्योंकि उन इलाकों में भी भाजपा की बुरी गत हुई है, जहां उसके सांसद या विधायक हैं।

मगर देखने की बात है कि भाजपा ने खुद इन चुनावों में उस तरह अपनी ताकत नहीं झोंकी थी जैसे दिल्ली और हैदराबाद के स्थानीय निकाय चुनावों में वह उतरी थी। पंजाब में वैसे भी वह शिअद के सहारे चुनाव मैदान में उतरती रही है। इस बार वह सहारा भी नहीं था। इसलिए इस चुनाव में सीधा संघर्ष कांग्रेस और भाजपा के नहीं, बल्कि मुख्य रूप से कांग्रेस और अकाली दल के बीच था। इसके पहले अकाली दल का ही स्थानीय निकायों पर कब्जा था। कुछ-कुछ चुनौतियां आम आदमी पार्टी की तरफ से भी थीं।

ये चुनाव ऐसे समय में हुए, जब देश में नए कृषि कानूनों के विरोध में आंदोलन चल रहे हैं और उसकी सबसे अधिक सरगर्मी पंजाब में देखी जा रही है। उसका असर इन चुनावों पर पड़ना स्वाभाविक था। चुनावों में लोग पार्टियों का मूल्यांकन उनके कामकाज के आधार पर करते हैं। उसी के अनुसार मतदान करते हैं। प्राय: जिन क्षेत्रों के चुनाव होते हैं, लोग उन्हीं में उनके कामकाज पर ध्यान केंद्रित करते हैं।

मसलन, स्थानीय चुनावों में मुख्य रूप से स्थानीय मसले महत्त्वपूर्ण होते हैं, बेशक पार्टियों की पहचान में उनके प्रदेश या केंद्र के स्तर पर प्रदर्शन भी कुछ मददगार होते हैं, पर वे बहुत प्रभावकारी साबित नहीं होते। पंजाब के स्थानीय निकायों में भी पहले के पार्षदों, मेयरों आदि के कामकाज, आचरण अधिक निर्णायक साबित हुए। निस्संदेह वहां के लोगों में शिअद को लेकर निराशा है। मगर आम आदमी पार्टी पर भी लोगों ने भरोसा नहीं किया, तो यह अर्थ जरूर लगाया जा सकता है कि कांग्रेस से वहां के लोगों का मोहभंग नहीं हुआ है। यह कांग्रेस के लिए स्वाभाविक ही उत्साहजनक बात है।

मगर पंजाब निकाय चुनावों का मिजाज सामान्य चुनावों से कुछ अलग था। जीत-हार तो हर चुनाव में होती है, लेकिन इस चुनाव से कुछ गहरे संकेत उभरते दिखे। पिछले कुछ सालों से जिस तरह मतदाता जाति, धर्म आदि से प्रभावित होकर मतदान करता देखा जाने लगा है, उसमें यह चुनाव एक परिवर्तन का भी पैगाम लेकर आया था।

वास्तव में मतदाता अपने मताधिकार का इस्तेमाल हथियार के रूप में करता देखा गया। लोगों ने न सिर्फ अपने वोटों से नकारा, बल्कि चुनाव प्रचार के समय कई प्रत्याशियों पर उनकी प्रकट नाराजगी भी देखने को मिली। कई लोग उन्हें प्रचार अभियान से वापस लौटने को कहते देखे गए। हालांकि मतदाता के सामने भी विकल्प नहीं है, उसे बदल-बदल कर उन्हीं कुछ पार्टियों में से किसी एक के प्रत्याशी पर भरोसा जताना और फिर निराश होना पड़ता है। मगर लोग अगर सचमुच जाति, धर्म के दायरे से बाहर निकल कर प्रत्याशियों और प्रतिनिधियों से रूबरू सवाल करना शुरू कर दें, तो लोकतंत्र को मजबूती मिलने की उम्मीद जगती है। वरना अभी जो जीत कर आए हैं, कल वे भी पुरानों के रंग में रंग जाएं, तो हैरानी नहीं।