चुनाव के समय राजनीतिक दल न केवल अपने घोषणा-पत्रों में बढ़-चढ़ कर लोकलुभावन वादे करते, बल्कि नकदी, आभूषण, महंगे उपहार और नशीले पदार्थ आदि बांट कर भी मतदाता को अपने पाले में खींचने का प्रयास करते देखे जाते हैं। यह अब एक तरह से परिपाटी बन गई है। हालांकि हर चुनाव में प्रत्याशियों के लिए खर्च की सीमा तय है और निर्वाचन आयोग दम भरता है कि वह स्वच्छ और निष्पक्ष चुनाव कराएगा।

इसके लिए जगह-जगह छापामार दल तैयार किए जाते हैं, जो चुनाव के समय अवैध रूप से मतदाताओं को लुभाने वाली गतिविधियों पर नजर रखते और नकदी आदि बांटने पर रोक लगाने का प्रयास करते हैं। मगर हकीकत यही है कि हर चुनाव में नकदी और महंगे उपहार, शराब वगैरह का चलन बढ़ता गया है।

अभी केंद्रीय प्रत्यक्ष कर बोर्ड ने बताया है कि पांच राज्यों में हो रहे विधानसभा चुनावों के दौरान जब्त की गई राशि पहले के चुनावों की तुलना में काफी बढ़ी हुई है। इस मामले में राजस्थान अव्वल है, जहां पहले की तुलना में करीब तीन गुना अधिक राशि जब्त की जा चुकी है। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि इन राज्यों में कितने बड़े पैमाने पर नकदी, शराब वगैरह बांटी गई।

चुनाव सुधार को लेकर लंबे समय से सुझाव दिए जाते रहे हैं। मतदाताओं को अनैतिक रूप से लुभाने की कोशिशों पर रोक लगाने के मकसद से कुछ कड़े प्रावधान भी किए गए। मगर उन कोशिशों का कोई लाभ नहीं मिल पा रहा, तो जाहिर है इसमें राजनीतिक दलों की इच्छाशक्ति का अभाव है। शायद किसी भी पार्टी में ऐसा नैतिक साहस नहीं है, जो दावा कर सके कि वह तय नियमों से बाहर जाकर चुनाव खर्च नहीं करती।

यही वजह है कि स्वच्छ और निष्पक्ष चुनाव कराने की जिम्मेदारी बेशक निर्वाचन आयोग पर है, मगर उसे एक प्रकार से नख-दंतविहीन बना कर रखा गया है। चुनाव में प्रत्याशी के लिए तो खर्च की सीमा तय है, मगर पार्टियों के लिए कोई सीमा नहीं है। इस तरह अक्सर प्रत्याशी अपने तय सीमा से अधिक खर्च को पार्टी खर्च के खाते में दिखा देते हैं।

इस तरह चुनावों में बेतहाशा खर्च किया जाने लगा है। निर्वाचन आयोग के लिए उस पर अंकुश लगाना कठिन बना हुआ है। पार्टियों को चुनावी चंदे के रूप में मिलने वाले गुप्त धन पर अंकुश लगाना तो चुनौती है ही। इस तरह चुनावों में काले धन को सफेद करने की कोशिशों पर रोक लगाना भी मुश्किल काम बना हुआ है।

सब जानते हैं कि चुनावों में खर्च होने वाला धन राजनीतिक पार्टियां और प्रत्याशी चंदे के रूप में जुटाते हैं। हालांकि इसके लिए भी नियम-कायदे हैं, मगर हर राजनीतिक दल के पास चोरी-छिपे गुप्त धन पहुंचता है, जो आमतौर पर कालाधन होता है। वही पैसा प्राय: नकदी, आभूषण, शराब और दूसरी वस्तुओं के रूप में बांटा जाता है।

आयकर और प्रवर्तन विभाग छापेमारी करके कुछ नकदी आदि पकड़ तो लेते हैं, मगर वह बांटी गई रकम का महज छोटा हिस्सा होती है। फिर, राजनीतिक दलों की इस प्रवृत्ति पर अंकुश इसलिए नहीं लग पाता कि जिस प्रत्याशी के पास से ऐसी अवैध चीजें पकड़ी जाती हैं, उसके खिलाफ कोई कड़ी कार्रवाई नहीं हो पाती। आजतक ऐसे किसी व्यक्ति का नामांकन या उसका चुनाव रद्द करने का प्रमाण नहीं है। जब तक कोई सख्त कदम नहीं उठाया जाएगा, राजनीतिक दल मतदाता को इस तरह प्रलोभित करने से शायद ही बाज आएं।