मध्यप्रदेश के इंदौर शहर ने हाल में कूड़े के एक पहाड़ को खत्म करने में जो बड़ी कामयाबी हासिल की है, वह देश के सभी शहरों और खासतौर से राजधानी दिल्ली के लिए एक बड़ा संदेश है। देश के ज्यादातर शहर कचरे की बढ़ती समस्या से ग्रस्त हैं। इसका नतीजा शहरों में कचरे के पहाड़ खड़े होने के रूप में सामने आ रहा है। मगर इस समस्या से निपटने में इंदौर ने जो दिशा दिखाई है, उससे प्रेरणा लेने की जरूरत है। इंदौर में पिछले चालीस साल से कूड़े का पहाड़ एक जटिल समस्या बना हुआ था। लेकिन पिछले साल नगर निगम ने इसे हटाने की ठानी और इस दिशा में काम शुरू कर दिया। चार महीने के भीतर कूड़े का पहाड़ साफ हो गया और लोगों को जहरीली-बदबूदार हवा से मुक्ति मिली। आश्चर्य यह है कि इस काम के लिए ऐसा कुछ भी नहीं किया गया जिसमें करोड़ों-अरबों के खर्च की जरूरत पड़ती या हजारों लोगों को इस काम में जुटाना पड़ता। इसके लिए सत्रह अर्थ मूविंग मशीनें किराए पर ली गर्इं और दो पालियों में डेढ़-डेढ़ सौ मजदूरों को काम पर लगाया गया। कचरे का रासायनिक विधि से उपचार किया गया और फिर उसमें से प्लास्टिक, गत्ते, चमड़े और धातुओं के टुकड़ों को अलग करके कबाड़ में बेच दिया गया। कचरे से जो जमीन खाली होती गई, उस पर पेड़-पौधे लगाने शुरू किए गए। कुल मिला कर व्यवस्थित रूप से जो काम शुरू किया गया, उसी का नतीजा है कि कूड़े का पहाड़ आज एक छोटे हरियाले वन का रूप ले चुका है।

दरअसल, कचरा निपटान की दिशा में इंदौर पहले भी एक मिसाल कायम कर चुका है। पिछले साल नगर निगम ने फल-सब्जियों के कचरे से बायो-सीएनजी गैस तैयार कर इससे सिटी बसें व ऑटो चलाने में कामयाबी हासिल की थी। गैस उत्पादन के लिए निगम ने फल-सब्जी मंडी में संयंत्र लगाया था। गैस उत्पादन के बाद जो अपशिष्ट बचा उसका उपयोग कंपोस्ट खाद बनाने में किया गया। इंदौर नगर निगम की इस कामयाबी से यही साबित हुआ है कि अगर हमारे स्थानीय निकाय, प्रशासन और सरकार ठान लें तो शहरों को कचरा मुक्त बनाने में कोई समस्या नहीं है। लेकिन देश के ज्यादातर शहरों में नगर निगम खस्ताहाल हैं। निगमों के पास जरूरी कामों के लिए बजट तक नहीं होता। कर्मचारियों को महीनों वेतन नहीं मिलता। ठेके पर काम कराने की संस्कृति ने निगमों को भ्रष्टाचार का बड़ा अड्डा बना डाला है।

दिल्ली में कूड़े के तीन बड़े पहाड़ हैं और ये तीन दशक से ज्यादा पुराने हैं। लेकिन अफसोसनाक बात यह है कि सुप्रीम कोर्ट की बार-बार फटकार के बावजूद इन्हें हटाने की दिशा में ऐसा कुछ नहीं किया गया है, जिससे लगे कि आने वाले वक्त में दिल्ली की जनता इनसे मुक्ति पा सकेगी। इन्हें हटाने को लेकर सुप्रीम कोर्ट कई बार उपराज्यपाल सहित तमाम आला अफसरों तक को तलब कर चुका है, फटकार लगा चुका है, लेकिन नतीजा कुछ नहीं निकला। ऐसे में कचरे के पहाड़ों का कद बढ़ता जा रहा है। अगर इंदौर नगर निगम चार-पांच महीने में कूड़े का पहाड़ हटा सकता है तो दिल्ली की सरकार और इसके निगम ये काम क्यों नहीं कर सकते? जाहिर है, इंदौर के इस महाभियान में कोई राजनीति नहीं हुई, जबकि दिल्ली सरकार और उपराज्यपाल कचरा निपटान जैसे मुद्दे पर राजनीति करने में लगे रहे और जनहित के काम को नजरअंदाज कर दिया। बेहतर हो कि राजनीति को अलग रख कर इंदौर की कामयाबी से सबक लिया जाए।