बेहतर और स्तरीय बहस लोकतंत्र के लिए जीवन का काम करते हैं, इससे देश का लोकतांत्रिक ढांचा मजबूत होता है। इसके ठीक उलट, अच्छी बहसों का अभाव या इसके मौके कम होना लोकतंत्र की जड़ों को कमजोर करता है और इसका खमियाजा आखिरकार आम जनता को भुगतना पड़ता है। इस तथ्य की अहमियत को लोकतंत्र की साधारण समझ रखने वाला कोई भी व्यक्ति समझता है। अफसोस की बात यह है कि पिछले कुछ सालों के दौरान देश की संसद और कई राज्यों के विधानमंडलों में बहस का मतलब महज सत्ता पक्ष और विपक्ष के सांसदों या विधायकों के बीच टकराव भर मान लिया गया है। बल्कि कई बार हालात हिंसक भी हुए और जनप्रतिनिधियों के बीच मारपीट भी हुई। हाल में संसद के मानसून सत्र के दौरान भी जैसे दृश्य देखने में आए, वे बेहद चिंता पैदा करते हैं। लगातार दोनों सदनों में हंगामे की स्थिति बनी रही और संसद ज्यादातर समय बाधित रही। इस स्थिति के लिए सत्ता पक्ष और विपक्ष की ओर से एक दूसरे को जिम्मेदार बताया गया और आरोप लगाए गए। लेकिन सवाल है कि क्या संसद का बहुमूल्य समय ऐसे हालात में जाया होने देना चाहिए!

दरअसल, यह केवल संसद का वक्त बर्बाद करने और इसके आर्थिक नुकसानों तक सीमित नहीं है। हमारे जनप्रतिनिधियों को इस पर सोचना जरूरी नहीं लगता कि इससे संसदीय परंपराओं और लोकतंत्र को किस स्तर तक नुकसान पहुंचता है। इस हंगामे के बीच कई ऐसे विधेयक दोनों सदनों में पारित होकर कानून के रूप में लागू होने के लिए तैयार हो गए, जिन पर बेहद जरूरी बहस नहीं हुई, उनके गुणदोषों पर चर्चा नहीं हुई। ऐसे में अंदाजा लगाया जा सकता है कि जो कानून बनेंगे, वह सरकार का पक्ष तो होगा, लेकिन उसमें विपक्ष और जनता की ओर से अन्य पक्षों के विचारों की भागीदारी नहीं होगी। जाहिर है, इसका सीधा असर संबंधित कानूनों के लोकतांत्रिक स्वरूप पर पड़ेगा। शायद यही वजह है कि स्वतंत्रता दिवस के मौके पर सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश एनवी रमण ने इस मसले पर गंभीर चिंता जताई। उन्होंने साफ लहजे में कहा कि आज संसद में विधेयक पारित हो रहे हैं और उन पर बहस तक नहीं हो रही है; हमें यह नहीं पता चल पाता कि कानून बनाने का उद्देश्य क्या है और यह व्यवस्था जनता के लिए ठीक नहीं है।

भारतीय संसद आजादी के बाद से जनता से जुड़े और उनके जीवन या अधिकार को सुनिश्चित करने वाले तमाम मसलों पर उच्च स्तरीय और गुणवत्तापूर्ण बहसों का गवाह रही है। एक समय कानूनों और संबंधित मुद्दों के जानकार संसद में भरे होते थे और वे उनके अलग-अलग पहलुओं पर गंभीर विचार-विमर्श कर एक ठोस स्वरूप देते थे, जिससे कानूनों को समझने में मदद मिलती थी। लेकिन आज हालत यह है कि हाल में संसद में आठ दिनों में बाईस विधेयक पारित हो गए और इनकी बारीकियों और असर के बारे में जनता को पता तक नहीं चला। हंगामे के बीच सदन स्थगित होते रहे और सरकार को विधेयकों पर बहस करा कर पारित कराना जरूरी नहीं लगा। एक ओर सरकार विपक्ष पर सदन का कामकाज रोकने की साजिश करने का आरोप लगाती है, वहीं विपक्षी पार्टियां संसद में उनकी आवाज को कुचलने, लोकतंत्र की हत्या करने की बात कह कर सरकार को कठघरे में खड़ा करती हैं। सवाल है कि बिना बहस के कानूनों के पारित होने के लिए कौन जिम्मेदार है! सदनों में बहस और विमर्श का गिरता स्तर और बिना बहस बनने वाले कानून देश के समूचे लोकतांत्रिक ढांचे पर दूरगामी असर डालेंगे और इसे लेकर सरकार सहित सभी विपक्षी दलों को बिना देर किए फिक्रमंद होना चाहिए।