सांसदों के वेतन और भत्तों के निर्धारण के लिए एक स्वतंत्र आयोग बनाने का सरकार का इरादा स्वागत-योग्य है। संसदीय कार्य मंत्रालय का यह प्रस्ताव फिलहाल विशाखापट््टनम में हो रहे दो दिवसीय अखिल भारतीय सचेतक सम्मेलन के एजेंडे का हिस्सा है और इसे अमली जामा पहनाने के लिए पहले मंत्रिमंडल और फिर संसद की भी मंजूरी लेनी होगी। पर देर से ही सही, यह दुरुस्त पहल है।

इसे आगे बढ़ाना और तार्किक परिणति तक ले जाना इसलिए जरूरी है कि जब भी सांसदों के वेतन-भत्तों में बढ़ोतरी होती है या उसका प्रस्ताव आता है, उस पर आमतौर पर नाराजगी भरी प्रतिक्रियाएं होती हैं। मीडिया में भी आलोचना के स्वर उभरते हैं। यों सरकारी कर्मचारियों-अधिकारियों के वेतन-भत्ते एक निश्चित अंतराल पर बढ़ाए जाते हैं, उसके लिए आयोग गठित होता है। पर सांसदों की वेतन-वृद्धि ही क्यों आलोचना का विषय बनती रही है? इसलिए कि वे खुद अपनी बाबत निर्णय करते हैं।

संसद में एक प्रस्ताव पारित कर वे बड़ी आसानी से अपनी तनख्वाह और भत्ते खुद बढ़ा लेते हैंं। इस मामले में वे अपवाद रहे हैं। इसे विशेषाधिकार का दुरुपयोग भी कहा जाता रहा है। आमतौर पर राजनीतिकों के प्रति जो असंतोष और मोहभंग का भाव है, वह भी संभवत: आलोचना का एक सबब रहता होगा। इसीलिए पहले से चली आ रही सुविधाएं भी कई बार सवालों के घेरे में जाती हैं। इसका हालिया उदाहरण लोकसभा कैंटीन को मिलने वाली सबसिडी को लेकर उठा विवाद था।

बहरहाल, लंबे समय से यह मांग उठती रही है कि अपनेवेतन-भत्तों और अन्य सुविधाओं की बाबत सांसद खुद फैसले न करें, बल्कि इसके लिए एक स्वतंत्र आयोग या समिति हो। उसकी सिफारिशों के मद्देनजर ही निर्णय लिये जाएं। सरकार को इस बारे में पहल करने की जरूरत महसूस हुई तो इसकी वजह अरसे से चली आ रही अपेक्षा के साथ-साथ भाजपा सांसद योगी आदित्यनाथ की अध्यक्षता वाली समिति की सिफारिश भी थी। इस समिति ने सुझाव दिया कि सांसदों का वेतन दुगुना कर दिया जाए और उनकी पेंशन में सतहत्तर फीसद की बढ़ोतरी हो। समिति ने यह सुझाव बहुत सारे सांसदों से बातचीत के बाद ही दिया था। पर यह सिफारिश सामने आते ही उसकी आलोचना शुरू हो गई, साथ ही यह मांग और तेज हो गई कि इस मसले पर एक स्वतंत्र आयोग या समिति बने।

जाहिर है, यह अपेक्षा मूर्त रूप लेती है तो यह सांसदों के लिए भी अच्छा होगा, इससे उनकी छवि कुछ बेहतर होगी। यूपीए सरकार के समय, तब के लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी ने इस मसले पर सर्वदलीय बैठक की थी। तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी इस पक्ष में थे कि सांसदों के वेतन-भत्ते और अन्य सुविधाएं तय करने के लिए ऐसी व्यवस्था बने जिसमें सरकार या सांसद निर्णायक न हों।

पर बात इससे आगे नहीं बढ़ी। सांसदों के वेतन-भत्तों का निर्धारण संविधान के अनुच्छेद 106 के तहत और 1954 में बने एक अधिनियम के अनुसार होता रहा है। जाहिर है, अगर कोई स्वतंत्र आयोग बनेगा तो उसके लिए संबंधित अधिनियम में संशोधन करना होगा और यह संसद की रजामंदी से ही हो सकेगा। मगर जिस तरह सांसदों के बीच भी स्वतंत्र समिति का विचार जोर पकड़ रहा है, संसदीय कार्य मंत्रालय के प्रस्ताव के मूर्त रूप लेने की उम्मीद की जा सकती है।

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