हर सभ्य और संवेदनशील देश तथा समाज अपनी भाषा और संस्कृति को लेकर सतर्क रहता है। बिना अपनी भाषा का संरक्षण किए, अपनी संस्कृति की सुरक्षा नहीं की जा सकती। इस अर्थ में केंद्रीय गृहमंत्री का भारतीय भाषाओं के संरक्षण और संवर्धन को लेकर दिया गया बयान महत्त्वपूर्ण है। उन्होंने दावे के साथ कहा कि आने वाला समय भारतीय भाषाओं का होगा और अंग्रेजी बोलने वाले शर्म करेंगे। उनके बयान से इस उम्मीद को भी बल मिला है कि राष्ट्रभाषा का मसला सुलझ सकता है। अभी हकीकत यही है कि सेतु भाषा के रूप में स्वीकार की गई अंग्रेजी का वर्चस्व अधिक है। सरकारी कामकाज, न्यायालयों, शिक्षा, व्यापार आदि में हालांकि भारतीय भाषाओं का चलन पहले की तुलना में बढ़ा है, पर इतना नहीं कि अंग्रेजी विस्थापित हो सके।
ऐसे में गृहमंत्री का बयान समझा जा सकता है। आजादी के बाद लगभग सर्वस्वीकृत था कि हिंदी राष्ट्रभाषा के रूप में स्थापित हो सकेगी। पर ऐसा होना तो दूर, कई क्षेत्रीय भाषाओं के साथ इसका तालमेल अब तक ठीक से नहीं बन पाया है। अक्सर कुछ राज्यों से हिंदी को लेकर विरोध के स्वर उभरते देखे जाते हैं। तमिलनाडु और महाराष्ट्र का मामला ताजा है, जहां शिक्षा में त्रिभाषा सूत्र लागू करने के लिए संघर्ष देखा गया। हालांकि महाराष्ट्र ने अब हिंदी को तीसरी भाषा के रूप में मान्यता दे दी है।
आज जब ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में काफी तरक्की हो चुकी है, खासकर शिक्षा के क्षेत्र में अंग्रेजी भाषा का वर्चस्व बढ़ता ही दिखाई देता है। ऐसे में स्वाभाविक रूप से सवाल उठते रहते हैं कि इस तरह आखिर भारतीय भाषाओं में ज्ञान के प्रसार का रास्ता प्रशस्त कैसे हो सकता है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति में भारतीय ज्ञान परंपरा के संरक्षण, संवर्धन और प्रसार पर बल दिया गया है। मगर यह काम अपनी भाषा में ही संभव हो सकता है। अंग्रेजी में पहले ही बहुत सारी ज्ञान संपदा की गलत व्याख्याओं से सांस्कृतिक धुंधलका छा गया है।
गृहमंत्री का वक्तव्य इस संदर्भ में व्यापक अर्थवत्ता समेटे हुए है। यह सही है कि कई बार बदलते समय के मुताबिक भाषाओं को अपनी उपयोगिता सिद्ध करने में कठिनाई आती है, मगर भाषाओं का अस्तित्व केवल व्यापारिक-वाणिज्यिक जरूरतों से जुड़ा नहीं होता। गृहमंत्री ने इस संदर्भ में साहित्य का महत्त्व रेखांकित किया कि साहित्य हमारे समाज की आत्मा है। यह सदियों से हमारी संस्कृति, धर्म और स्वतंत्रता की रक्षा करता आया है।
कुछ लोगों को सदा से लगता रहा है कि इस तेजी से बदलते दौर में, जब दुनिया विश्वग्राम बन चुकी है, अंग्रेजी के बिना तरक्की संभव नहीं है। मगर इस सच्चाई से मुंह नहीं फेरा जा सकता कि भारतीय ज्ञान परंपरा को अवरुद्ध या कहीं-कहीं उसकी धारा को पूरी तरह खत्म कर देने में अंग्रेजी का बड़ा हाथ रहा है। जिसे भारतीय आत्मा कहा जाता है, उसकी रक्षा भारतीय भाषा के जरिए ही संभव है। हालांकि गृहमंत्री ने भी स्वीकार किया कि विदेशी पहचानों से मुक्ति पाने में वक्त लगेगा और भारतीय भाषाओं का वास्तविक स्वरूप विकसित होने में कुछ कठिनाई है, पर यह संभव होगा। भाषाओं के संरक्षण और संवर्धन का जिम्मा चूंकि गृह मंत्रालय पर है, इसलिए यह माना जाना चाहिए कि गृहमंत्री जब अंग्रेजी को विस्थापित कर भारतीय भाषाओं का वर्चस्व स्थापित करने का दावा कर रहे हैं, तो निस्संदेह उनके मन में इसे लेकर कोई ठोस खाका है।
Jammu Kashmir में उर्दू पर क्यों छिड़ा सियासी बवाल? बीजेपी बोली- जम्मू के लिए नुकसान