शक्ति का दंभ कई बार जल्दबाजी का वाहक बनता है और इस क्रम में जो फैसले लिए जाते हैं, अक्सर उन्हें लेकर ऊहापोह बना रहता है। ऐसी स्थिति में आशंकाओं के घेरे की वजह से विरोधाभासी प्रतिक्रियाएं स्वाभाविक होती हैं। अमेरिका ने जिस तरह एकतरफा तौर पर अपने यहां आयातित वस्तुओं पर शुल्क लगाने का फैसला किया, वह पहले ही सवालों के घेरे में था। उसके बाद जब उसने रूस से तेल खरीदने को लेकर भी भारत पर दबाव बनाने की कोशिश की, तब यह साफ था कि वह व्यापार वार्ता में अपनी शर्तों पर भारत की हामी चाहता है।
मगर पिछले कई दशकों के दौरान भारत और अमेरिका के बीच व्यापार का जो स्वरूप खड़ा हुआ है, उसमें भारत के लिए अमेरिका की हर बात मानना संभव नहीं है। यही वजह है कि अमेरिका के रुख में सख्ती के समांतर भारत ने झुकने के बजाय अपने लिए वैकल्पिक उपायों पर विचार करना शुरू कर दिया। एक शानदार कूटनीति का परिचय देते हुए भारत ने रूस और चीन के साथ बातचीत को आगे बढ़ाया और चीन के तियानजिन में हुए शंघाई सहयोग संगठन के सम्मेलन के घोषणापत्र में भी अपने हित के मुद्दे को शामिल कराने में कामयाबी हासिल की।
भारत के रूस-चीन के साथ समीकरण अमेरिका के लिए बनेंगे चुनौती
गौरतलब है कि रूस और भारत के बीच लंबे समय से मजबूत संबंध रहे हैं। चीन के साथ सीमा विवाद के कई प्रश्न हैं और उनकी अनदेखी नहीं की जा सकती, लेकिन फिलहाल आर्थिक मुद्दों को केंद्र में रख कर भारत ने जो कूटनीतिक बिसात तैयार की है, उसमें रूस भी अहम भूमिका में है। अगर रूस और चीन के साथ संबंध सकारात्मक दिशा में आगे बढ़े, तब स्वाभाविक ही इससे एक नया समीकरण बनेगा, जो आर्थिक और सामरिक दृष्टि से अमेरिका के लिए चुनौती साबित हो सकता है।
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यही वजह है कि शुल्क लगाने को लेकर बेहद हड़बड़ी में कदम उठाने के बाद से ही अमेरिका के राष्ट्रपति और अन्य नेताओं के आए दिन ऐसे बयान सामने आ रहे हैं, जिससे ऐसा लगता कि वे दबाव पैदा करके भारत के फैसलों को प्रभावित करना चाहते हैं। अमेरिका की ओर से एक दिन शुल्क लगाने से उपजी समस्या का समाधान निकालने की उम्मीद जताई जाती है, तो अगले ही दिन धमकी या दबाव की भाषा अख्तियार कर ली जाती है। भारत ने अगर चीन में शंघाई सहयोग संगठन के सम्मेलन में ठोस भागीदारी के साथ-साथ रूस और चीन के साथ संबंधों को एक नया आयाम देने की कोशिश की, तो इसमें अमेरिका के विरोधाभासी रवैये की भी बड़ी भूमिका है।
यह विचित्र है कि बदलते भू-राजनीतिक परिदृश्य के बीच अमेरिका को यह समझने की जरूरत नहीं लगी कि अब दुनिया एकध्रुवीय नहीं रह गई है। भारत निश्चित रूप से अपने हित में अमेरिका के साथ व्यापार वार्ता को एक संतुलित आकार देना चाहता है, लेकिन अमेरिका के लिए अपनी शर्तें ज्यादा अहम हो गई लगती हैं। यही वजह है कि भारत ने वैकल्पिक उपाय के रूप में रूस और चीन के साथ सहयोग के मोर्चे की दिशा में ठोस कदम उठाए।
जब इसके नतीजे में रूस और चीन की ओर से भारत को लेकर एक विवेकसम्मत प्रतिक्रिया देखने को मिलने लगी है, तो अमेरिका के व्यापार सलाहकार इसे चिंताजनक बता रहे हैं। सवाल यह है कि अगर अमेरिका अपने ही विरोधाभासी फैसलों से घिरा रहता है, तो उसे भारत के अपने हित में उठाए गए कदमों से परेशानी क्यों होनी चाहिए। यह ध्यान रखने की जरूरत है कि बहुध्रुवीय विश्व में अमेरिका सहित किसी भी एक देश की मनमानी नहीं चल सकती।