केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड यानी सीबीएसई के तहत इस साल हुई दसवीं और बारहवीं की परीक्षाओं के नतीजे घोषित होने के साथ एक बार फिर इसके आधार पर स्कूली शिक्षा के सकारात्मक और नकारात्मक पहलुओं पर चर्चा स्वाभाविक ही है। गौरतलब है कि इस बार दसवीं कक्षा के नतीजों में 93.12 फीसद और बारहवीं में 87.33 फीसद विद्यार्थियों ने कामयाबी हासिल की है। पिछले कई सालों की तरह इस साल फिर दोनों ही कक्षाओं में लड़कों के मुकाबले लड़कियों ने बेहतर प्रदर्शन किया। दसवीं में लड़कियों की सफलता का प्रतिशत 94.25 रहा, जबकि लड़कों की तादाद इससे करीब दो फीसद कम रही।
दूसरी ओर, बारहवीं के नतीजों में लड़कियों की उपलब्धि लड़कों के सामने छह फीसद ज्यादा अच्छी रही। इस कक्षा में 84.67 फीसद लड़के सफल रहे, जबकि 90.68 फीसद लड़कियों ने बाजी मारी। स्वाभाविक ही इन नतीजों के बाद अब इससे आगे के सफर के लिए कामयाब हुए विद्यार्थी नया रास्ता तलाशेंगे और अब तक हासिल दक्षता और ज्ञान के जरिए नई ऊंचाई की ओर बढ़ेंगे। लेकिन साथ ही इन परिणामों ने समाज से लेकर सरकार तक के लिए कुछ अन्य समस्याओं पर गौर करने का मौका भी मुहैया कराया है।
दरअसल, इस साल बारहवीं कक्षा के नतीजों में उल्लेखनीय कमी दर्ज की गई, वहीं दसवीं के परिणाम का भी यही रुख रहा। बारहवीं में इस बार पिछले साल के मुकाबले 5.38 फीसद कम विद्यार्थी कामयाब हुए, जबकि दसवीं में यह गिरावट 1.28 फीसद रही। दसवीं में कम विद्यार्थियों के पास होने के आंकड़े को अगर बड़ा न भी मानें तो बारहवीं में लगभग साढ़े पांच फीसद की कमी चिंता का कारण होना चाहिए। हालांकि पहले के मुकाबले कमतर नतीजे किसी भी रूप में स्वागतयोग्य नहीं माने जाते, आंकड़े या अनुपात में अंतर चाहे जो हो।
यह स्थिति तब रही जब पिछले करीब डेढ़-दो सालों से स्कूली पढ़ाई के मामले में अब सहजता आ गई है और कक्षाएं नियमित तौर पर चलने लगी हैं। सवाल है कि स्कूलों में पठन-पाठन के माहौल से लेकर गुणवत्ता में वे क्या कमियां रहीं, जिनका असर इन दोनों कक्षाओं के नतीजों पर पड़ा? क्या कक्षाओं में शिक्षण गतिविधियों और उनकी गुणवत्ता के मामले में प्रदर्शन अपेक्षा के अनुरूप नहीं रह पाया? या फिर विद्यार्थियों की मेहनत और परीक्षा में उनके प्रदर्शन के मामले में कम से कम पहले का स्तर भी बना नहीं रह पाया?
गौरतलब है कि कोरोना महामारी और उसकी वजह से लागू हुई पूर्णबंदी में स्कूलों में नियमित पढ़ाई काफी समय तक बंद रही, जिसका विद्यार्थियों पर काफी हद तक नकारात्मक असर पड़ा था। ज्यादातर विद्यार्थियों के सामने घर में ही रह कर पढ़ाई करने या आनलाइन कक्षाओं के जरिए पढ़ने की मजबूरी थी। संसाधनों और सुविधाओं के अभाव में कई विद्यार्थियों को मुश्किलें पेश आईं। वैसी स्थिति का असर निश्चित रूप से कई विद्यार्थियों के कोमल मन-मस्तिष्क पड़ा होगा। इससे उबरने में शायद वक्त लगे। लेकिन अब हालात सामान्य हो चुके हैं और स्कूली शिक्षा भी नियमित पढ़ाई के मामले में सहज हो गई है।
ऐसे में पठन-पाठन का माहौल बेहतर होने के साथ ही अच्छे नतीजों की अपेक्षा स्वाभाविक है। फिर भी कामयाब होने वाले विद्यार्थियों के आंकड़ों में गिरावट के समांतर सफलता की तस्वीर यह बताती है कि बेहतरी की उम्मीद कायम है। स्कूलों में शिक्षण गतिविधियों, कक्षाओं में नियमित पढ़ाई, शिक्षकों के केवल शिक्षण कार्यों पर अपना ध्यान केंद्रित करने और विद्यार्थियों को बेहतर करने के लिए प्रोत्साहित करने जैसे कुछ अन्य जरूरी उपायों के जरिए परीक्षाओं के परिणामों में सुधार लाना कोई बड़ी चुनौती नहीं है। लेकिन जरूरत स्कूलों में पठन-पाठन का माहौल बेहतर करने और शिक्षकों की भूमिका को गुणवत्ता आधारित शिक्षण में केंद्रित करने की है।