हिमाचल प्रदेश में छह मुख्य संसदीय सचिवों को हटाने और उनको मिली सुविधाएं वापस लेने का उच्च न्यायालय का आदेश अन्य राज्य सरकारों के लिए एक नजीर और सबक है। अदालत ने उस कानून को भी अमान्य कर दिया है, जिसके तहत नियुक्तियां हुई थीं। आज जब सरकार का आकार छोटा रख कर जनता को सुशासन देने का वादा किया जाता है, ऐसे में चहेते विधायकों को उपकृत करने की प्रवृत्ति अनुचित ही है। कोई दो राय नहीं कि इस तरह की राजनीतिक नियुक्तियों से शासन पर अनावश्यक आर्थिक बोझ बढ़ता है।

संसदीय सचिव बनाने की रही है राजनीतिक परंपरा

कई राज्यों में संसदीय सचिव बनाने की राजनीतिक परंपरा रही है। संविधान के अनुच्छेद 164 के अनुसार किसी भी राज्य में उसके विधायकों की कुल संख्या के पंद्रह फीसद से अधिक मंत्री नहीं हो सकते। फिर भी हिमाचल में कुछ विधायकों पर कृपा की गई। उन्हें मंत्रियों के समान वेतन और तमाम सुविधाएं दी गईं। इसी पर सवाल उठाया गया था। इससे पहले भी उच्च न्यायालय ने संसदीय सचिवों को मंत्रियों की तरह शक्ति का प्रयोग न करने का अंतरिम आदेश दिया था। इस मामले को लेकर राज्य सरकार ने शीर्ष अदालत में गुहार लगाई थी। मगर वहां भी उसकी नहीं सुनी गई।

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गौरतलब है कि इससे पूर्व उच्चतम न्यायालय मणिपुर और असम में संसदीय सचिवों की नियुक्तियों को अवैध ठहरा चुका है। हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय के ताजा आदेश को गंभीरता से लेने की जरूरत है। इस पूरे मसले पर समन्वित रूप से विचार किया जाना चाहिए। एक ओर तो राज्य सरकारें पैसे की कमी और वित्तीय बोझ बढ़ने का रोना रोती रहती हैं। वे कई बार केंद्र सरकार से मदद की गुहार लगाती हैं। दूसरी तरफ अपने करीबी लोगों को उपकृत करने में उदारता दिखाती हैं।

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ऐसी नियुक्तियों पर बेवजह खर्च को लेकर लंबे समय से सवाल उठते रहे हैं। राज्यों में अनेक ऐसे आयोग और बोर्ड हैं, जिनमें ऐसे विधायकों को अहम पद दे दिए जाते हैं, जिन्हें किन्हीं कारणों से मंत्री नहीं बनाया जा पाता। उनमें से कई बोर्ड और आयोग प्राय: निष्क्रिय और अनुपयोगी हैं। किसी को उपकृत करने के लिए सार्वजनिक धन का अपव्यय क्यों होना चाहिए।