हरियाणा में लड़के और लड़कियों की संख्या में समानता लाने की दिशा में प्रयास सफल नहीं हो पा रहे हैं। इसका कारण समाज के एक बड़े हिस्से की सोच में बदलाव नहीं आना तो है ही, साथ ही सरकारी महकमों का लापरवाह रवैया भी इसके लिए उतना ही जिम्मेदार है। नतीजा यह कि राज्य कई वर्षों से लिंगानुपात में असंतुलन की समस्या से जूझ रहा है। निस्संदेह जब तक लड़के-लड़कियों में भेदभाव खत्म नहीं होगा, तब तक स्थिति बदलने वाली नहीं। हालांकि राज्य सरकार के कुछ सुधारात्मक कदमों से लिंगानुपात में थोड़ा सुधार हुआ है।
इस वर्ष एक जनवरी से बाईस सितंबर तक राज्य में लिंगानुपात एक हजार लड़कों पर 907 लड़कियां हो गया है, जो कि पिछले वर्ष इसी अवधि में 904 था। मगर चिंता की बात यह है कि राज्य के ग्यारह जिलों की तस्वीर अब भी नकारात्मक है। इससे यह भी पता चलता है कि राज्य में भ्रूण परीक्षण की पाबंदी पर सख्ती से अमल नहीं हो पा रहा है। ऐसे में प्रदेश सरकार ने गंभीरता दिखाते हुए लापरवाही बरतने वाले अधिकारियों को कड़ी कार्रवाई की चेतावनी दी है।
सवाल यह है कि लिंगानुपात में असंतुलन क्यों है? दरअसल, इसकी जड़ें सामाजिक सोच और पुरानी मान्यताओं में दबी हैं। इससे समाज आज तक उबर नहीं पाया है। नब्बे के दशक में भ्रूण का पता लगाने की तकनीक का जो दुरुपयोग शुरू हुआ, वह बढ़ता चला गया। इसे रोकने के लिए कड़े कानून बनाए गए, लेकिन उन पर सख्ती से अमल नहीं हुआ।
वर्ष 2001 की जनगणना में हरियाणा में लिंगानुपात 861 तक गिर गया था। हालांकि राज्य में लगातार जागरूकता अभियान चलाने के बाद स्थिति थोड़ी सुधरी। वर्ष 2019 में यह अनुपात 923 तक तक पहुंच गया। मगर पिछले वर्ष यह फिर घट गया। इससे स्पष्ट है कि सरकार के सामने चुनौतियां कम नहीं हुई हैं। इस दिशा में जमीनी स्तर पर काम करने की जरूरत है। परिवारों की उस सोच को भी बदलना होगा, जो बेटियों को आज भी बोझ मानते हैं। आज जरूरत है बेटियों के जन्म को सम्मान और समानता के नजरिए से देखने की।