देश की राजनीति में परिवारवाद का आरोप अपने आप में जनमत निर्माण का एक मुद्दा रहा है। इस मसले पर ज्यादातर लोगों की राय भी सकारात्मक नहीं होती है। हालांकि जरूरी नहीं कि इसका विरोध करते हुए कोई व्यक्ति मतदान के समय भी इसे एक बड़ी समस्या मानते हुए इसी मुद्दे को अपना मत देने का आधार बनाता हो। परिवार केंद्रित राजनीति को लोकतंत्र के खिलाफ और स्वार्थ केंद्रित बताते हुए खासतौर पर भारतीय जनता पार्टी ने इसे अक्सर एक चुनावी मुद्दा बनाया है और इसी आधार पर वह आए दिन कांग्रेस को घेरती रही है।
भाजपा के समर्थक तबकों के बीच भी यह सवाल हावी रहा है कि किसी भी राजनीतिक दल को एक परिवार या नेताओं के रिश्तेदारों के दायरे में नहीं बांधा जाना चाहिए। दरअसल, परिवारवाद का विरोध भाजपा की राजनीति का एक मुख्य केंद्र रहा है। इसे चुनावी मुद्दा बनाने में भी उसे काफी हद तक कामयाबी मिली। मगर अपने इस नारे या विचार को लेकर भाजपा क्या सचमुच गंभीर है और अगर इस मसले पर उसकी कथनी और करनी में विपरीत अंतर दिखता है तो इसके क्या मायने हैं!
नेताओं के बेटे-बेटियों को खुलकर दिए गए टिकट
गौरतलब है कि हरियाणा में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं और इसके मद्देनजर सभी पार्टियों के उम्मीदवार तय किए जाने की प्रक्रिया जारी है। इस क्रम में भाजपा की ओर से उम्मीदवारों की जो पहली सूची सामने आई है, उसमें पार्टी के कई बड़े नेताओं के बेटे, बेटियों या रिश्तेदारों को खुल कर टिकट दिए गए हैं। दिलचस्प यह भी है कि कुछ ऐसे नेताओं को भी उम्मीदवारी का तोहफा दिया गया है, जो हाल ही में कांग्रेस या कोई अन्य पार्टी छोड़ कर भाजपा में शामिल हुए।
दरअसल, हरियाणा महज एक नया उदाहरण भर है, जहां भाजपा को परिवारवाद के विरोध के समांतर चुनावी उम्मीदवारी के लिए रिश्ते-नाते के लोगों को प्राथमिकता देने से कोई गुरेज नहीं है। इससे पहले भी कई राज्यों और केंद्र की राजनीति में चुनाव के दौरान अपने घोषित रुख के उलट भाजपा ने अपने नेताओं के रिश्तेदारों को सांसद-विधायक पद पर टिकट दिया और वे जीते। सवाल है कि अगर भाजपा सचमुच परिवारवाद को देश की राजनीति में एक समस्या मानती है, तो इसका मुखर विरोध करने के बावजूद इसे और जटिल बनाने में उसे हिचक क्यों नहीं हो रही?
