आखिरकार सोमवार को हरियाणा सरकार ने जाट समुदाय को आरक्षण देने के लिए विधेयक को हरी झंडी दे दी। दूसरे दिन यानी मंगलवार को विधेयक विधानसभा से पारित भी हो गया, वह भी सर्वसम्मति से। पिछले महीने आरक्षण के लिए राज्य में हुए जाटों के आंदोलन ने काफी उग्र रूप ले लिया था। आंदोलन के दौरान हुई हिंसा ने तीस लोगों की जान ले ली। जाहिर है, यह विधेयक उस आंदोलन से बने दबाव का ही नतीजा है। सवाल है कि क्या यह विधेयक आरक्षण की मान्य कसौटियों पर खरा उतरता है, और क्या यह कानूनी औचित्य या न्यायिक समीक्षा में टिक पाएगा? हरियाणा विधानसभा ने जिस विधेयक को मंजूरी दी है उसके मुताबिक जाट, जट सिख, त्यागी, रोड़ और बिश्नोई समुदायों को पिछड़े वर्ग के तहत आरक्षण दिया जाएगा। राज्य सरकार इन पांच समुदायों को ‘बीसी-सी’ की नई श्रेणी बना कर दस फीसद आरक्षण देगी।
इसी के साथ राज्य सरकार ने ग्रुप ए और बी यानी प्रथम तथा द्वितीय श्रेणी की नौकरियों में पिछड़ा वर्ग, विशेष पिछड़ा वर्ग (जिसे बीसी-सी कहा जाएगा) और आर्थिक आधार पर पिछड़ों का आरक्षण भी बढ़ाने का फैसला किया है। अतिरिक्त आरक्षण के चलते हरियाणा में कुल आरक्षण बढ़ कर सड़सठ फीसद हो जाएगा। इससे ज्यादा, उनहत्तर फीसद आरक्षण सिर्फ तमिलनाडु में है। जाटों की मांग पूरी करने के लिए ओबीसी कोटा बढ़ाने की वजह यह रही होगी कि पिछड़े वर्ग में नाराजगी न फैले। गौरतलब है कि खुद भाजपा के भीतर जाटों के लिए आरक्षण के मसले पर एक राय नहीं थी। पार्टी के हरियाणा से चुने गए एक सांसद तो खुलकर इस मांग की मुखालफत की थी। राज्य के कई मंत्री भी इसी सोच के थे। उनका विरोध शांत करने की तजवीज भले कर ली गई हो, पर सवाल है कि क्या आरक्षण का फैसला इसी तरह से होना चाहिए कि कोई समूह सरकार को सांसत में डाल दे, तो उसकी मांग मान ली जाए? या, आरक्षण के जो मानदंड हैं उनका पालन किया जाना चाहिए?
सियासी गुणा-भाग में आरक्षण की कसौटियों की अनदेखी पहले भी हुई है। मार्च 2014 में, जब लोकसभा चुनाव नजदीक आ गए थे, यूपीए सरकार ने केंद्रीय सेवाओं में जाटों को ओबीसी आरक्षण की घोषणा कर दी। पर इस फैसले को एक याचिका के जरिए चुनौती दी गई और साल भर बाद सर्वोच्च न्यायालय ने पिछली सरकार के फैसले को खारिज कर दिया। जाटों को आरक्षण देने के हुड््डा सरकार के निर्णय का भी यही हश्र हुआ था, उस पर हाईकोर्ट ने रोक लगा दी। न्यायिक हस्तक्षेप से बचने के लिए हरियाणा सरकार ने भरोसा दिलाया है कि संबंधित विधेयक या कानून को विधानसभा से पारित कराने के बाद उसे नौवीं अनुसूची में डालने के लिए वह केंद्र से अनुरोध करेगी। पर किसी विषय को नौवीं अनुसूची में तभी रखा जा सकेगा, जब इसके लिए संसद की मंजूरी हो। हरियाणा सरकार के विधेयक पर क्या संसद में आम राय बन पाएगी? अगर उसे नौवीं अनुसूची में डाला गया, तो इसकी देखादेखी कई अन्य राज्यों में भी ऐसे विधेयक पारित कर उन्हें नौवीं अनुसूची में डालने की मांग नहीं उठेगी? फिर, सर्वोच्च न्यायालय की ओर से लगी आरक्षण की पचास फीसद की सीमा का क्या होगा? जब गुजरात में ओबीसी आरक्षण के लिए पाटीदारों के आंदोलन के आगे भाजपा नहीं झुकी, तो सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के बावजूद हरियाणा में उसने घुटने क्यों टेक दिए?