आर्थिक पिछड़ेपन के आधार पर गुजरात सरकार ने दस फीसद का अतिरिक्त आरक्षण घोषित किया है। यह निर्णय पाटीदारों के आंदोलन के आगे घुटने टेकना ही कहा जाएगा। मगर मकसद फौरी तौर पर पाटीदारों की नाराजगी दूर करने के अलावा चुनावी भी होगा। गुजरात में अगले साल विधानसभा चुनाव होने हैं और वहां पाटीदारों की संख्या खासी है, किसी भी अन्य जाति से अधिक। इसलिए राजनीति और चुनाव पर उनका असर या कहें वर्चस्व साफ दिखता है। स्थानीय निकायों के चुनाव नतीजों से डरी भाजपा ने आखिरकार पाटीदार आंदोलन के आगे हथियार डाल देना ही ठीक समझा। गुजरात सरकार का यह फैसला वैसा ही है जैसा जाटों को आरक्षण के दायरे में लाने का हरियाणा सरकार का था। दोनों जगह भाजपा की सरकारें हैं।
तो क्या भाजपा ने आरक्षण के लिए मचल रहे ताकतवर समुदायों को संतुष्ट करने का फार्मूला निकाल लिया है? हरियाणा और गुजरात के फैसलों में फर्क यह है कि हरियाणा सरकार ने जाटों और कुछ अन्य समुदायों को चिह्नित करके अतिरिक्त आरक्षण का प्रस्ताव विधानसभा से पारित कराया, जबकि गुजरात सरकार ने सामान्य वर्ग में छह लाख रुपए सालाना से कम आमदनी वाले सभी परिवारों के लिए आरक्षण का दरवाजा खोल दिया है। इससे हरियाणा की तरह गुजरात में भी कुल आरक्षण उनसठ फीसद पर पहुंच जाएगा। सुप्रीम कोर्ट ने आरक्षण की पचास फीसद की सीमा बांध रखी है। जाहिर है, हरियाणा और गुजरात, दोनों राज्यों के आरक्षण संबंधी कदमों का क्या हश्र होगा, इसका अंदाजा लगाया जा सकता है।
यहां सर्वोच्च अदालत के दो फैसले भी याद किए जा सकते हैं। गुर्जरों के लिए विशेष आरक्षण का राजस्थान सरकार का प्रावधान न्यायिक समीक्षा में नहीं टिक पाया था। जाटों को आरक्षण देने के यूपीए सरकार के निर्णय को असंवैधानिक ठहराते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि जाट आरक्षण की शर्तें पूरी नहीं करते। यानी केवल आर्थिक आधार पर आरक्षण देना आरक्षण की मूलभूत अवधारणा के खिलाफ है। तमिलनाडु अकेला राज्य है जहां 69 फीसद आरक्षण है।
पर यह अपवाद इसलिए है क्योंकि संसद से पारित संवैधानिक संशोधन के जरिए तमिलनाडु को इसकी इजाजत दी गई थी। भाजपा यह जता रही है कि चाहे हरियाणा सरकार का फैसला हो या गुजरात का, वह कानूनी लड़ाई लड़ेगी। पर सर्वोच्च न्यायालय के पिछले फैसले बताते हैं कि आखिरकार क्या होगा। दरअसल, भाजपा की ओर दिया जा रहा कानूनी लड़ाई लड़ने का आश्वासन अगले विधानसभा चुनाव तक पाटीदारों के मान-मनौव्वल की कवायद का हिस्सा है। लेकिन क्या यह रणनीति कामयाब होगी? अभी भाजपा को भले लग रहा हो कि उसने सभी को खुश करने वाला आरक्षण का एक नायाब फार्मूला ढूंढ़ लिया है, पर इस दांव के खयाली पुलाव साबित होने में ज्यादा वक्त नहीं लगेगा।