एक लोकतांत्रिक देश के संघीय ढांचे की अहम पहचान है सवाल पूछना और अभिव्यक्ति की आजादी। नागरिकों की आवाज को समाचार में जगह देना पत्रकार का दायित्व होता है। अगर वह सच्चाई सामने नहीं लाएगा, जनता की परेशानियों तथा उनकी नाराजगी को सामने नहीं रखेगा, तो पत्रकारिता अपना मूल उद्देश्य खो देगी। लेकिन आलम यह है कि शासन तंत्र अपने खिलाफ कोई भी स्वर नहीं सुनना चाहता। इसकी बानगी गुवाहाटी में देखने को मिली, जहां एक सहकारी बैंक के खिलाफ विरोध प्रदर्शन के दौरान वित्तीय अनियमितताओं को लेकर सवाल पूछने वाले पत्रकार को गिरफ्तार कर लिया गया।
हालांकि बाद में एक अदालत ने पत्रकार को जमानत दे दी। उस बैंक में अहम पदों पर सत्ता से जुड़े रसूखदार लोग काबिज हैं और वह पत्रकार वहां चल रही अनियमितताओं को लेकर लगातार अपने समाचार पोर्टल पर लिख रहा था। हालांकि इस संबंध में पुलिस का कहना है कि उस पत्रकार ने जनजातीय समुदाय के एक व्यक्ति के खिलाफ जातिवादी टिप्पणियां की थी।
व्यवस्था के विरोध में जनता के लिए लिखने वाले पत्रकारों के प्रति शासन की असहिष्णुता की खबरें अक्सर सामने आती हैं। लेकिन ऐसी स्थिति में कोई पत्रकार कैसे अपनी जिम्मेदारी निभा पाएगा। तमाम वैश्विक एजंसियां भारत में प्रेस की स्वतंत्रता को लेकर सवाल उठा रही हैं। यह खेदजनक है कि प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक में भारत लगातार नीचे खिसक रहा है। 180 देशों में भारत वर्तमान में 159वें स्थान पर है। वर्ष 2003 से ही भारत का प्रदर्शन खराब आंका जा रहा है।
सूचकांक के अनुसार, भारत में प्रेस की स्वतंत्रता को कब्जे वाले फिलिस्तीनी क्षेत्रों, संयुक्त अरब अमीरात, तुर्किये और रूस के बराबर माना जा रहा है। ब्रिक्स देशों में ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका को भारत की तुलना में ज्यादा स्वतंत्रता प्राप्त है, जबकि चीन और रूस निचले पायदान पर हैं। दक्षिण एशियाई देशों में, बांग्लादेश को छोड़कर अन्य सभी देश नवीनतम सूची में भारत से बेहतर स्थान पर हैं। हमें सोचना होगा कि हम कहां खड़े हैं। लोकतांत्रिक ढांचे को मजबूत करने वाले इस अहम कारक की ओर ध्यान देना होगा कि यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता ही है जो भारत के लोकतंत्र को मजबूत करती है।