जीवन की तमाम समस्याओं के बीच हर मनुष्य खुश रहना चाहता है। इसके लिए वह कुछ भी करने के लिए तैयार हो जाता है। खुश रहने की यह होड़ दुनिया भर के देशों में है। लेकिन यह किस हद तक संभव हो पाता है? यह तथ्य है कि दुनिया के चंद देश ही अपने नागरिकों की खुशहाली की चिंता करते हैं। भारत जैसे बड़ी आबादी वाले देशों के सामने कई चुनौतियां हैं। बेरोजगारी, महंगाई और महंगे होते इलाज से जूझते लोगों में निराशा जरूर पैदा होती है, पर संघर्षों के बीच भी वे अपनी खुशियां तलाश ही लेते हैं।
हम अब भी नेपाल, पाकिस्तान, यूक्रेन और फिलीस्तीन से पीछे
‘वैश्विक खुशहाली सूचकांक 2025’ में भारत ने पिछले साल के मुकाबले अपनी स्थिति बेहतर की है, लेकिन इससे बहुत ज्यादा खुश होने की जरूरत नहीं है। दरअसल, हम अब भी नेपाल, पाकिस्तान, यूक्रेन और फिलीस्तीन से पीछे हैं। दूसरी ओर फिनलैंड है, जो लगातार आठ वर्षों से दुनिया का सबसे खुशहाल देश बना हुआ है। इस सूचकांक में पिछड़ने वाले देशों को डेनमार्क और स्वीडन से भी यह सीखने की जरूरत है कि वहां लोग कैसे और क्यों खुशहाल हैं। जीवन में बदलाव लाने की कई योजनाएं लागू होने और विश्व का सबसे युवा देश होने पर भी भारत खुशहाल क्यों नहीं, इस पर नीतियां बनाने वालों को सोचना होगा।
इसमें कोई दोराय नहीं कि रोजी-रोटी की जद्दोजहद और भागदौड़ की जिंदगी में तनाव बढ़ा है। आर्थिक चुनौतियां भी गहरी हुई हैं। जीवन में आ रहीं जटिलताएं कैसे कम हों, इस पर सोचना होगा। वैश्विक खुशहाली सूचकांक हमारी सरकार के लिए भी एक आईना है। यह गौर करने की जरूरत है कि दूसरे देशों से खुशहाली में हम क्यों पीछे हैं। क्या योजनाओं और नीतियों में कोई कमी रह गई, जिसकी वजह से खुशहाली जमीनी स्तर पर नहीं उतर रही?
सच है कि पश्चिमी पैमाने पर भारतीयों की खुशियों को नहीं मापा जा सकता। दुख-सुख के बीच यहां लोग थोड़े में गुजारा करते हुए अपनी खुशियां तलाश लेते हैं। मगर इसके लिए अवसर को आसान बनाने की जिम्मेदारी सरकारों की होती है। नागरिकों को सुरक्षित वातावरण और विकास के समान अवसर मिलेंगे, तो खुशियां उनके चेहरे पर निस्संदेह चमकेंगी।