पाकिस्तान में अनवार-उल-हक काकड़ को नया कार्यवाहक प्रधानमंत्री चुन लिया गया है, लेकिन इससे पहले शहबाज शरीफ का जो कबूलनामा सामने आया है, वह प्रथम दृष्टया चौंकाने वाला लगता है। हालांकि यह सिर्फ उन बातों की पुष्टि है, जो पाकिस्तान की सत्ता में वहां की सेना के दखल के बारे में लंबे अरसे से कहा जाता रहा है। फिर भी, शहबाज शरीफ की स्वीकारोक्ति इसलिए अहम मानी जा सकती है कि सरकार के किसी निवर्तमान प्रधानमंत्री ने खुद यह बात कही है।
दरअसल, गुरुवार को एक साक्षात्कार के दौरान उन्होंने कहा कि पाकिस्तान में सरकार सेना के समर्थन के बिना नहीं चल सकती है। जाहिर है, जिस देश में तख्तापलट की आशंका बनी रहती हो, वहां की राजनीति में सेना की भूमिका का अंदाजा लगाया जा सकता है। यों पाकिस्तान में अब तक सरकारों के कामकाज का जो तरीका रहा है, देश के अंदर से लेकर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जिस तरह के फैसले सामने आते रहे हैं, उनमें सेना का प्रभाव साफतौर पर दिखता रहा है। मगर एक शीर्ष पद की जिम्मेदारी संभालने वाले व्यक्ति ने स्पष्टता से यह कबूल किया है, तो यह चिंता की बात है।
पहले शहबाज शरीफ ने इसको लेकर पूर्व प्रधानमंत्री इमरान खान की आलोचना की थी
गौरतलब है कि पाकिस्तान में इस साल के अंत तक आम चुनाव कराए जाने की संभावना है। यह देखने की बात होगी कि शहबाज शरीफ का कबूलनामा चुनावों के दौरान राजनीतिक दलों और जनता के बीच राय बनाने में क्या भूमिका निभाता है। यह छिपी बात नहीं है कि सत्ता से बाहर और विपक्ष का नेता रहते हुए शहबाज शरीफ शासन चलाने के लिए सेना के दखल को लेकर तत्कालीन प्रधानमंत्री इमरान खान की आलोचना करते थे। मगर इमरान खान के सत्ता से बाहर होने के बाद जब उन्हें पाकिस्तान की गद्दी संभालने का मौका मिला, तो उन्होंने खुद भी उसी स्थिति को स्वीकार करने से गुरेज नहीं किया।
पूर्व प्रधानमंत्री इमरान खान ने भी सेना से टकराव मोल लिया था
हालांकि इससे पहले पूर्व प्रधानमंत्री इमरान खान ने भी सेना से टकराव मोल लिया था। पर सवाल है कि अगर पाकिस्तान में अलग-अलग पार्टियों के बीच सरकार में सेना के दखल को लेकर चिंता है और वे इसे अनुचित मानते हैं, तो इस मसले पर राजनीतिक रूप से कोई ठोस पहल क्यों नहीं होती!
दरअसल, दशकों से पाकिस्तान में ऐसे हालात बने हुए हैं कि वहां आम चुनावों के बाद सरकार बनते ही ऐसे आरोप लगने लगते हैं कि सरकार सेना के प्रभाव में काम कर रही है। भारत भी अक्सर यह कहता रहा है कि पाकिस्तान की सरकार के कामकाज और खासतौर पर पड़ोसी देशों के प्रति नीतिगत फैसले वहां की सेना की मर्जी के मुताबिक लिए जाते हैं। मगर जब भी ऐसी बातें सार्वजनिक रूप से कही जाती हैं, तो पाकिस्तान घोषित तौर पर उन्हें खारिज ही करता रहा है। लेकिन आंतरिक या बाह्य मामलों में सरकार के फैसलों और रुख में आए दिन होने वाले उतार-चढ़ाव से साफ पता चलता है कि वहां सरकार किस हद तक स्वतंत्र तरीके से काम कर पाती है।
यह बेवजह नहीं है कि अनेक मौकों पर भारत और पाकिस्तान के बीच संवाद की स्थितियां बनती हैं, संबंधों में सुधार के लिहाज से कुछ सकारात्मक माहौल बनने भी लगता है, लेकिन फिर कुछ दिनों बाद ही पाकिस्तान की ओर से कोई न कोई ऐसा राग छेड़ दिया जाता है, जिससे पटरी पर आती स्थितियां भी बिगड़ जाती हैं। सवाल है कि आधुनिक विश्व में लोकतंत्र की बढ़ती मांग के बीच पाकिस्तान की चुनी हुई सरकारें आखिर कब तक सेना के दखल का बोझ ढोती रहेंगी!