यह अजीब बात है कि एक तरफ राज्य सरकारें किसानों की हितैषी होने का दावा करती हैं, तो दूसरी ओर उनकी घोर उपेक्षा करती हैं। यह हाल तब है जबकि भारत को कृषि प्रधान देश माना जाता है और किसानों को अन्नदाता। पिछले कई वर्षों में किसानों की चुनौतियां बढ़ी हैं। कई राज्यों में उन्हें प्रकृति के कोप का सामना करना पड़ रहा है। सूखे की मार से लेकर बाढ़-बारिश और पाले से फसलों की बर्बादी बढ़ गई है। मगर राहत के नाम पर किसानों को जिस तरह की फौरी मदद दी जाती है, उससे कई बार तो व्यवस्था से जुड़े अधिकारियों की समझ और विवेक पर भी सवाल उठता है।

महाराष्ट्र के अकोला जिले में उनकी लापरवाही साफ दिखी, जहां भारी बारिश से फसलों को हुए नुकसान की भरपाई के लिए प्रधानमंत्री बीमा योजना के तहत किसानों को महज तीन से इक्कीस रुपए दिए गए। यह राशि सचमुच उन अन्नदाताओं का मजाक था, जो अपने खेत-खलिहानों में रात-दिन पसीना बहा कर फसल उगाते हैं। स्वाभाविक रूप से किसानों ने इसे न केवल अपनी दुर्दशा का मजाक माना, बल्कि नाराजगी जताते हुए जिला कलेक्टर के कार्यालय में जाकर सहायता राशि के चेक लौटा दिए।

सवाल है कि फसलों का लागत-मूल्य पता लगाने और उसका वास्तविक आकलन करके किसानों को सहायता राशि देने की जिम्मेदारी किसकी थी? गौरतलब है कि हरियाणा से लेकर पंजाब और महाराष्ट्र तक किसानों को बाढ़ और बारिश का सामना करना पड़ा है। इन राज्यों में राहत के लिए उठाए गए कदमों से ज्यादातर किसान संतुष्ट नहीं दिखते। महाराष्ट्र के नागपुर में फसलों के नुकसान का मुआवजा और संपूर्ण कर्ज माफी तथा न्यूनतम समर्थन मूल्य के लिए किसानों को आंदोलन करना पड़ा है।

हैरत है कि इस पूरे परिदृश्य के बीच किसानों के बैंक खाते में इतनी न्यूनतम राशि किस आधार पर जमा कराई गई। क्या राज्य सरकार ने भारी बारिश से हुए फसलों के नुकसान का वास्तविक आकलन नहीं कराया था? अकोला जिले में सितंबर में हुई बारिश से फसलों को व्यापक नुकसान पहुंचा है। ऐसे में इतनी छोटी राशि देकर न केवल किसानों की उपेक्षा की गई, बल्कि उनके श्रम का भी अपमान किया गया है।